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________________ 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 नाशने गुणस्थानों में गति करता पुरुषार्थी बन पंच परमेष्ठी आराधना की शरण ली । भवघट से तिरने रत्नत्रय और चतुराधन पालते लोकपूरणी समुद्घात को करते हुए सिद्धत्व हेतु तीसरा शुक्लध्यान पाने वाले साधक ने चारों अनुयोगों का ज्ञान पाया। स्वसंयमी ने ढाईद्वीप में आत्मस्थता से रत्नत्रय धारा । दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने वीतरागी तपस्या की और छत्रधारी राजा से ऐलक और फिर समताधारी तपस्वी बनकर स्वसंयम से इच्छा निरोध किया । खंडित । मांगीतुंगी / उदयगिरि, खण्डगिरि ( युगल शिखरों पर रत्नत्रय धारणकर मोक्षार्थी साधक वीतरागी तपस्या लीन होते हैं। सम्यक्त्वी स्वसंयमी, ने भवघट में रत्नत्रय पालने के लिए चारों कषायों को त्यागकर श्री अरहंत की शरण ली । चंचल मन के असंयमी पंचम गति भावी छत्रधारी राजा ने एकदेश स्वसंयमी बनकर आरंभी गृहस्थ का त्याग किया और तीन धर्म ध्यानों का स्वामी बनकर जंबूद्वीप में रत्नत्रय धारने हेतु चारों कषायें त्यागी मन को स्थिर करते हुए वह निश्चय - व्यवहार धर्म में लीन हुआ । निकट भव्य ने सल्लेखना धारणकर षट् द्रव्य चिंतन करके रत्नत्रय धारा । चार घातिया कर्मों का नाश करके भवचक्र से पार होने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने सचेलक तपस्या धारकर चारों कषायों को त्यागा । स्वसंयम बढ़ाते हुए ही वीतरागी तपस्या चलती है । दूसरे शुक्लध्यान की भूमिका रत्नत्रयी जीवन के वातावरण और वीतरागी तपस्या से सधती है । षट् आवश्यक सजग साधक शिखर तीर्थ पर जाकर दो धर्म ध्यानों का स्वामी होकर भी सल्लेखना करने हेतु अनुकूल वातावरण पा लेता है । पंचाचारी तपस्वी ने अरहंत पद की प्राप्ति हेतु "निश्चय-व्यवहार धर्मी चतुर्विध संघाचार्य की शरण ली। ढ़ाईद्वीप में जीव स्वसंयमी बनकर अष्टापद की तरह कभी हार न मानते हुए पंचम गति हेतु / गुणस्थानोन्नति करते हैं । रत्नत्रयी जंबूद्वीप में निकट भव्य पंचाचारी बनकर तपस्या करते लीन होते हैं और पुरुषार्थ बढ़ाकर वीतराग तपस्यारत होते हैं । रत्नत्रयी चतुराधन से ही तीर्थंकर प्रकृति बंधती है । केवली जिन आत्मस्थ होकर वीतरागी तपस्या करते हैं । वे पंचाचार पालते हुए तपस्वी को तप दर्शाते निकट भव्यत्व और वीतरागी तपस्या का पथ प्रशस्त कराते हैं । वीतरागी तपस्या भवचक्र से पार कराने वाली दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व की स्थिति से प्रारंभ होकर आत्मस्थ तपस्वी को आरंभी गृहस्थ की भूमिका से तीन धर्म ध्यानों और स्वसंयम के इच्छा निरोध में स्थापित कराती है। इह भवतारी पंचमगति । अस्पष्ट । Jain Education International 94 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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