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________________ 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 रत्नत्रयी जंबूद्वीप में दूसरे शुक्लध्यान तक की प्राप्ति तपस्वी को चारों कषायों के त्यागने पर प्राप्त होती है । घातिया 'चतुष्क का क्षय भवचक्र से पार होने के लिए दो शुक्लध्यानों की आवश्यकता होती है । जो साधक / तपस्वी को चारों कषायों को दूर करने पर ही प्राप्त होते हैं। आरंभी गृहस्थ तीन धर्म ध्यानों का स्वामी अरहंत और सिद्ध की भक्ति करता अपने वातावरण में गुणस्थानोन्नति करते हुए वैराग्य धारण कर ( वीतरागी ) तप में लीन होता है । सप्त तत्त्वों का चिंतक पंचम गति हेतु वीतरागी तपस्या धारण करता है । पंच परमेष्ठी की आराधना और चतुराधन ही सार है । रत्नत्रयी जंबूद्वीप में अरहंत सिद्ध ( व्यवहार - निश्चयधर्म) का जाप और चतुराधन दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति का कारण होते हैं । तिस पर वीतरागी तपस्या ही इष्ट है । निश्चय व्यवहारी वीतरागी तपस्वी कीर्तिवान युगल बंधु निश्चय-व्यवहार धर्मी ( कुलभूषण - देशभूषण ) थे । अस्पष्ट । कुत्ते ने रत्नत्रयी निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण ली और युगल बंधु तपस्वियों की तरह आत्मस्थता और पुरुषार्थ . क्रमोन्नति करके अरहंत पद प्राप्ति हेतु वीतरागी तपस्या की । (अ) निकट भव्य सल्लेखना द्वारा अष्टकर्मों जन्य चतुर्गति का नाश करने वीतरागी तपस्या करता है । (ब) अष्ट कर्मों से जन्य चतुर्गति भ्रमण का नाश करने जिनशासन के जिनलिंगियों की शरण में जाता है । (स) रत्नत्रय । रत्नत्रयी जंबुद्वीप में छत्रधारी राजा सचेलक रत्नत्रयी तपस्वी बनकर उत्तरोत्तर पुरुषार्थ उठाते वीतरागी तप करते हैं। चतुर्गति भ्रमण नाशने सल्लेखी ने जिनदेव जैसी तपस्वी की आत्मस्थता धारण करके नदी के तट पर वीतरागी तपस्या की । अस्पष्ट । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने रत्नत्रय धारी ऐलकत्व स्वीकार कर तपस्या की और युगल बंधुओं जैसा स्वसंयम से इच्छा निरोध करके वातावरण को निश्चय-व्यवहार धर्ममय बनाकर वीतरागी तप किया । समवशरण में दूसरे धर्मध्यान के स्वामी जीव को भी वैयावृत्ति गुणस्थानोन्नति कराती है । सम्यक्त्व की साधना चारों कषायें त्यागने पर ही होती है। रत्नत्रयी जंबूद्वीप में दो धर्म ध्यानों वाले भी तपस्या तत्पर जीव ऐलक अथवा आर्यिका बनकर द्वादश अनुप्रेक्षा भाते वीतरागी तपस्या में प्रगति करते हैं । (अ) संघवृक्ष की छांव में तीन धर्म ध्यानी जीव भी पक्षी जैसा या सचेलक, योग्य पुण्य तपस्या द्वारा पा सकते हैं । (ब) अंतहीन भटकान से छुटकारा अरहंत प्रभु ने षट् आवश्यक करते हुए अर्धचक्री पद से सल्लेखना पुरुषार्थ दो धर्म ध्याानों व्दारा किया । (स) रत्नत्रय । Jain Education International 95 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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