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229- चार धर्म ध्यानों को ध्याने वाला छत्रधारी राजा भी तपस्वी बनकर स्वसंयमी बना । 230- चतुराधक तपस्वी ने कैवल्य की प्राप्ति दो शुक्ल ध्यानों सहित की थी ।
रत्नत्रयी जंबूद्वीप में निकट भव्य पंचाचारी तपस्या लीन होकर सिद्धत्व के लिए निश्चय-व्यवहार धर्म पालकर पंचम
गति की साधना हेतु वीतरागी तपस्या करते हैं । 232- जंबूद्वीप में आत्मस्थता पाने छत्रधारी राजा तपस्वी बनकर मन पर संयम योग्य वातावरण बनाता है । 233
मुनि एवं आर्यिकाओं की गुणस्थानोन्नति स्वसीमाओं में संयमित होकर (पुरुषार्थ सहित) चारों कषायों को त्यागकर अणुव्रती ने प्रारंभ की जिसे वीतरागी तपस्वी बनकर तप में प्रखर किया । आरंभी गृहस्थ ने रत्नत्रय धारकर दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से छत्रधारी राजा की तरह चारों कषायों को त्यागकर तपस्या की । (अ) दो धर्म ध्यानी पक्षी ने चारों कषायें त्यागी ।
(ब) तपस्वी ने तपस्या के द्वारा केवली समुद्घात किया । 236- सिद्धत्व पाने चतुराधक ने निकट भव्य के रूप में निश्चय-व्यवहार धर्म सहित वैराग्य तपस्या रूप धारा । 237- भवघट से तिरने आरंभी गृहस्थ ने दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से उठकर केवलत्व हेतु सल्लेखी बनकर चतुराधन के
अदम्य पुरुषार्थ द्वारा वीतरागी तप किया । लोकपूरणी समुद्घात करने वाला तपस्वी दो धर्म ध्यानी छत्रधारी राजा था जिसने अदम्य पुरुषार्थ द्वारा रत्नत्रयी
साधना से वीतरागी तपस्या की । 239- छत्रधारी राजा ने चतुर्विध संघाचार्य की शरण ली । 240- चार धर्म ध्यानों का स्वामी, वीतरागी मुनि, नवदेवता एवं नवग्रह आराधक था । 241- चतुराधक सल्लेखी अर्धचक्री था जिसने चार आराधनाओं को आराधा । 242- वैयावृत्ति व्दारा गुणस्थानोन्नति करता पंचम गति का साधक चार अनुयोगी निश्चय-व्यवहार धर्मी था । 243- चतुर्गति भ्रमण से मुक्ति पाने आत्मस्थ तपस्वी सल्लेखना धारणकर वीतराग तप धर्मी होते हैं ।
निकट भव्य गुणस्थानोन्नति करते हैं । 245- अपूर्ण एवं खण्डित। 246- रत्नत्रयी महाव्रती कैवल्य पाने वाले सललेखी संघ में ढ़ाईद्वीप में आत्मस्थता रखते, दूसरे शुक्लध्यान के स्वामी बनकर
वीतरागी तपस्या करते हैं। 247- चतुर्गति भ्रमण नाशने को सल्लेखी ने युगल तपस्वियों (कुलभूषण-देशभूषण) जैसा पंचाचारी तपश्चरण किया । 248- चतुराधक निकट भव्य वीतरागी तपस्वी है । 249- अदम्य पुरुषार्थ से चार धर्म ध्यान मुनि रत्नत्रयी कीर्ति पाते हैं । 250- तीर्थकर बनने वाले को मन की निर्विकल्पता दूसरे और तीसरे शुक्लध्यान और अष्ट गुण वैभव की ओर ले जाते हैं। 251- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों की भूमिका से आरभी गृहस्थ तीन धर्म ध्यानों की भूमिका में पहुंचने हेतु स्वसंयम से
इच्छा निरोध स्वीकारता है ।
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