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252- अस्पष्ट । 253- वीतरागी तपस्या उत्तरोत्तर बढ़ते हुए निश्चय-व्यवहार धर्म के साथ रत्नत्रय का संपूर्ण पालन करने से वीतरागत्व और
तपस्या को बढ़ाती है। 254- पंच परमेष्ठियों का आराधन और पुरुषार्थ तथा वीतरागी तपस्या ही तपस्वी मुनि करते हैं ।
भवघट से तिरने दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी लोकपूरन करता समाधिस्थ होकर (जिस प्रकार कुलभूषण-देशभूषण
बंधुओं ने की थी ) वीतरागी तपस्या तपता है । 256- भवघट से तिरने और दूसरे शुक्लध्यान के स्वामित्व द्वारा अरहंत पद की प्राप्ति आर्यिकाओं एवं सचेलकों द्वारा कमशः
चौथी प्रतिमा संयम से ऊपर उठने पर भवोन्नति से ही होती है । 257- चतुर्गति भ्रमण को रोककर सिद्धत्व पाने हेतु साधना दूसरे धर्म ध्यान की प्राप्ति और निश्चय-व्यवहार धर्म की साधना
सहित चतुर्विध संघ में चौथी प्रतिमा का व्रत धारण और वीतराग तपस्या करने से संभव होती है । 258- पुरुषार्थी सल्लेखी चतुराधक, वीतरागी जिनधर्मी तपस्या को सर्प के रूप में भी साधना से प्रारंभ कर लेता है । 260- निश्चय-व्यवहार धर्म का वातावरण तपस्वी और आर्यिका अथवा ऐलक को तीन धर्म ध्यानों से जम्बूद्वीप में संघस्थ हो
कमशः पूर्ण वैराग्य पालते हुए होता है । 261- चारों कषायों का त्याग ही भवचक्र से पार होने और दूसरे शुक्लध्यान को पाने की भूमिका बनाता है । 262- भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी पुरुषार्थ उठाते, सप्त तत्त्व चिंतन करता वीतराग तपस्या करता है । 263- जंबूद्वीप में रत्नत्रय पालन वीतराग तप और पंचम गति का उद्यम रत्नत्रय तप वैराग्य बढ़ाने से ही संभव होता है । 266- आरंभी गृहस्थ ने लोकपूरणी सल्लेखना की भावना मुनिव्रत धारण करके करने की भाई किंतु उसके चरणों में संसारी
' बेड़ियां थीं। 267- सिद्धत्व प्राप्ति हेतु पुरुषार्थी जम्बूद्वीप में रत्नत्रयी साधनारत अरहंत देव भी अष्ट मूलगुणों और रत्नत्रय की साधना करते
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भवचक्र से पार होने दो धर्मध्यानों के स्वामी को अंतहीन गठान से छूटने (बाहर निकलने) के लिए गुणस्थानोन्नति वाली
वीतरागी तपस्या करना आवश्यक है । 270- ढाईद्वीप में ही रत्नत्रय पलता है ।
भवचक्र से पार होने के लिए अर्धचकी ने रत्नत्रयी पुरुषार्थ करके छत्रधारी राजा से तपस्वी बनकर सचेलक अवस्था से
षट् आवश्यक पूरे करते हुए वीतरागी तपस्या की । 272- रत्नत्रयी वातावरण में सचेलक तपस्वी भी रत्नत्रय पालन करता उत्तम दशधर्म का पालन करते हुए निश्चय-व्यवहार
धर्म को सही-सही आचरता है और वातावरण अपने अनुकूल बनाता है । 273- निकट भव्य, पुरुषार्थी सल्लेखना और चतुराधन करते हुए तपस्वी बनकर आरंभी गृहस्थ अवस्था को त्यागकर तीन
धर्म ध्यानों सहित उठते हुए भव्य बनते और गुणस्थानोन्नति करते हैं । 274- पंचपरमेष्ठी आराधना करते हैं । 275- छत्रधारी राजा ऐलक बनकर आरंभी गृहस्थ की भूमिका से उठ तीन धर्म ध्यानी संयमी बन इच्छा निरोध करता है।
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