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भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी अर्धचकी ने वीतरागी श्रमणत्व स्वीकारा ।
गृह / संघ से ही चतुराधन और वीतराग तपस्या प्रारंभ होते हैं ।
पंचमगति पाने के लिए जम्बूद्वीप में आत्मस्थ होकर दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी बनने की स्थिति तक घातिया कर्मों के नाशने का पुरुषार्थ उत्तरोत्तर बढ़ाना पड़ता है और वीतरागी तपस्या तपना पड़ती है ।
(अ) कीर्तिवान मुनि का रत्नत्रय पालन ।
(ब) भवघट के कृषक का बालक को गोद में लिए भैंसे पर नियंत्रण / वार |
पंचमगति की साधना हेतु संघस्थ होकर वीतरागी तपस्या करते हुए आत्मस्थ होकर सचेलक को भी स्वसंयम से इच्छा
निरोधक बनाया।
भव केन्द्रण हेतु दो धर्मध्यानों का स्वामी सचेलक रत्नत्रयी वीतरागी तपस्या करते हुए निकट भव्य बनता और गुणस्थानोन्नति करता है ।
निकट भव्य चतुराधन करके तपस्वी बनता और वीतरागी तपस्या करता है ।
भवचक्र को पार करने वाले उर्ध्वगामी केवली जिन दूसरे शुक्लध्यान के स्वामी होते हैं जो अणुव्रती स्थिति से उठते हुए षट् द्रव्यों के गुणों (और उनकी शाश्तता) का चिंतन करते हुए वीतरागी तप करते हैं।
आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तद्भवी मोक्ष पाने भव्य जीव निश्चय-व्यवहार धर्म की साधना करता संपूर्ण भव को निश्चय व्यवहारमय बना लेता है और बार-बार पुरुषार्थ उठाते हुए वीतरागी तप करता है ।
चार दुयानों को त्यागने वाला अणुव्रती तपस्वी दो धर्म ध्यानों की स्थिति से उठकर दूसरे शुक्लध्यान तक पहुंचने के लिए तपस्या करता साधक बन जाता है और कायोत्सर्गी बनकर वीतरागी तपस्या तपता है ।
वीतरागी तपस्वी आत्मस्थता से भवचक्र पार करके सिद्ध बनने हेतु सल्लेखना धारण करता और कैवल्य प्राप्ति तक चतुर्विध संघाचार्य की शरण में निश्चय व्यवहार धर्म पालन करता है ।
खंडित है ।
भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी भी सल्लेखना धारण कर चतुराधन करके त्रिगुप्ति रखता और वीतरागी तपस्या लीन
होता है ।
भवघट से घातिया चतुष्क नाश करने हेतु निश्चय-व्यवहार धर्मतुला की शरण में पंच परमेष्ठी आराधना ही गुणस्थानोन्नति कराती है ।
भवघट से तिरने दो शुभध्यानी (धर्मध्यानी) भी तद्भवी मोक्षार्थी बनकर शिखर तीर्थ पर अदम्य पुरुषार्थ बढ़ाते हुए कैवल्य प्राप्त कर वातावरण में वीतरागी तपस्या तपते हैं ।
तपस्वी चतुराधक सल्लेखना से अपनी वीतरागी तपस्या को पूर्णता देते हैं ।
स्वसंयमी वीतरागी तपस्या हेतु अणुव्रत धारणकर छह बाह्य और छह अंतरंग तप तपते हैं ।
सल्लेखी निश्चय व्यवहार धर्मी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में है ।
तद्भवी मोक्षार्थी पन्द्रह योगों का निग्रही वीतरागी तपस्वी है ।
चारों कषायों को त्यागते, पुरुषार्थमय चार गुणों की उन्नति कर वीतरागी तपस्वी रत्नत्रय धारण और चतुराधन से
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