________________
अष्ट कर्मजन्य चतुर्गति के नाशने हेतु साधना करता है। 296- जिनशासन के जिनलिंगी अदम्य पुरुषार्थी और रत्नत्रयी होते हैं। 297
तीर्थकर प्रकृति के अदम्य पुरुषार्थ के लिए गुणस्थानोन्नति और दूसरे शुक्लध्यान के स्वामित्व के साथ-साथ रत्नत्रयी जम्बूद्वीप में साधना करने वाला सचेलक स्वसंयमी था जिसने सिद्धत्व के लिए तीन धर्म ध्यानों की भूमिका से साधना
प्रारंभ की । 298- पुरुषार्थी सल्लेखी वीतरागी साधना सप्त तत्त्व का चिंतन और रत्नत्रय पालन द्वारा करता है । 299- सल्लेखना पुरुषार्थ । 300- संघ की शरण में रत्नत्रय धारण करके आत्मस्थ हो वीतरागी ने पुरुषार्थ बार-बार बढ़ाकर वातावरण उन्नत किया । 301- पंचमगति के युगल साधकों ने (कुलभूषण देशभूषण) निकट भव्यत्व की साधना तीन धर्म ध्यानों के साथ वीतरागी तपस्वी
बन, सिद्धत्व हेतु चार शुक्ल ध्यानों वाला पुरुषार्थी बनने रत्नत्रयी तपस्या की । 302- भवचक से पार होने दो "धर्म ध्यानों" के स्वामी ने रत्नत्रय भव साधना करते हुए तीसरे शुक्लध्यान तक का पुरुषार्थ
उठाकर वीतरागी तपस्या की । 303- स्वयसंयमी ने संघ के पादमूल में सल्लेखना ली । 304
भवघट से पार उतरने तीर्थकर प्रकृतिवान ने अणुव्रती बन निश्चय-व्यवहार धर्म की तपमूलक चार अनुयोगी वीतरागी
धर्म की शरण ली । 305- कुत्ते ने भी रत्नत्रयी जिनशासन की शरण ली जिससे भवान्तर में रत्नत्रयी तपस्या करते तीन धर्म ध्यानी स्थिति से
वीतरागी तपस्यारत चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में जाने पर (तिर्यच होकर भी) साधना पथ पकड़ा । 306- चारों घातिया कर्मों को नष्ट करने के लिए रत्नत्रय की साधना हेतु अणुव्रती सचेलक की तरह तप मार्ग चुनकर (चौथे
गुणस्थान) से वीतरागी तपस्या की. और निकट भव्य बनकर रत्नत्रयी साधना की । 307- भवचक्र से पार होने दो "धर्म ध्यानों के स्वामी निकट भव्य आरंभी गृहस्थ ने तीन धर्म ध्यान प्राप्त करके सचेलक (ऐलक)
आर्यिका बनकर तपस्या की और चारों कषाये त्यागकर छत्रधारी जैसी तपस्या की । 308
जिन सिंहासन के आश्रित जिनलिंगी अदम्य पुरुषार्थी वीतरागी तपस्या करते हैं । 309- इस अवसर्पिणी कालार्ध में तपस्वी रत्नत्रयधारी, वीतरागी तप धारते हैं । 310- अरहंत “जिन" चारों कषायें त्याग कर ही पंचम गति प्राप्त करते हैं । 311- चतुर्गति भ्रमण के नाशने को सल्लेखी “निकट भव्य" युगल बंधु तपस्वी जैसे हैं । 312- गृहस्थ भी निकट भव्यता से अनुकूल वातावरण संघाचार्य की शरण में रत्नत्रय पालकर वीतरागी तपस्या करते हैं । 313- सल्लेखना द्वारा कुत्ते ने भी निश्चय-व्यवहारी आत्म धर्म पाया । 314- अदम्य पुरुषार्थी सल्लेखी वीतरागी तप द्वारा दो शुक्लध्यान पा जाते हैं । 315- तपस्वी चतुराधक वीतरागी तप करते हैं । 316- पंचाचारी पुरुषार्थी सल्लेखना द्वारा दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति कषायें त्याग करते हुए तपस्या द्वारा पाता है । 317- चतुराधन करता रत्नत्रयी तपस्वी वीतरागी तपस्वी है जिसने गुणस्थानोन्नति हेतु पूर्व के उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी
99
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org