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________________ 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 332 329 / 330-अधूरा अस्पष्ट । 331 333 334 335 336 337 338 कालार्थों में सल्लेखना करके निकट भव्यता पाई और छह अंतरंग तथा छह बहिरंग तप तपे । तपस्वी जंबूद्वीप में ऐसा चार अनुयोगी वीतरागी तपी है जिसने घातिया कर्मों के ज्ञानावरण दर्शनावरण नाशने का संकल्प किया है । चारों शुक्लध्यानों के स्वामी को समवशरण में सुनने, दूसरे धर्मध्यान स्वामी श्रावक, निकट भव्य और चतुराधक गए। उल्टा अमांगलिक स्वस्तिक । वीतरागी तपस्वी संघाचार्य की शरण में केवली श्रद्धानी रत्नत्रयी तपस्वी है । रत्नत्रय की उत्तरोत्तर बढ़ती साधना को वीतरागी तपस्वी चतुर्विध संघाचार्य निश्चय व्यवहारमय जीवन में उतारते हैं भवघट से तिरने वाले मन वचन काय नियंत्रक वे अरहंत परमेष्ठी (तीर्थकर ) तपस्वी द्रव्यलिंगी पुरुष तपस्वी ही थे । रत्नत्रयी जंबूद्वीप में छत्रधारी राजा (छत्री भी तपस्वी होता है) और स्वसंयम से इच्छा निरोध करता है । चार प्रतिमा धारी,, आरंभी गृहस्थ, उपशमी महाव्रतधारी आदि मन को स्थिर करके दो धर्म ध्यानों से ही रत्नत्रयी जम्बूद्वीप में छत्रधारी तपस्वी संघाचार्य के चरणों में पहुंचे और चतुराधन करते सल्लेखनारत हुए । भवचक्र से पार उतरने सल्लेखी छत्रधारी (छत्री) राजा रत्नत्रयी तपस्वी बन गया और उत्तरोत्तर पुरुषार्थ उठाकर उसने वीतरागी तपस्या की । 339 अस्पष्ट । बनावटी दिखता है / अस्पष्ट है । आरंभी गृहस्थ स्वसीमित शाकाहार के साथ सल्लेखना वैयावृत्ति भी भाता है । घातिया कर्मों से मुक्ति चाहता (साधक) भवघट से तिरने के लिए दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से उठकर पुरुषार्थ द्वारा दूसरे शुक्लध्यान को पा लेता है। (केवलज्ञान प्राप्ति तक गुणस्थानोन्नति करते) तीर्थंकर प्रकृति वाले ने दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व की भूमिका (चतुर्थ गुणस्थान) से आत्मस्थ हो तपस्या की और संघ के शीर्ष चतुराधक, वीतरागी तपस्वी बने । जिनशासन में इस अवसर्पिणी में आर्यिका / ऐलक (सचेलक) अपने षट् आवश्यक करते हुए ही अपने व्रत पालते हैं। भवचक्र से पार उतरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी आत्मस्थ निकट भव्य चतुराधन करते दोनों युगल बंधुओं (कुलभूषण देशभूषण ) की तरह पंचम गति प्राप्त करने हेतु रत्नत्रय सहित वीतरागी तपस्या तपते हैं। चतुराधन करते निकट भव्य बनकर बाधा आने पर हुए द्वादश अनुप्रेक्षा चिंतन करते हुए ढाईद्वीप के आत्मस्थ व्यक्ति भी अपनी गुणस्थानोन्नति ही करते हैं । अदम्य पुरुषार्थ सहित सल्लेखी वीतरागी तपस्या में आत्मस्थ होकर रत्नत्रयी वातावरण का क्षेत्र सीमित सुरक्षित रखते हैं और जंबूद्वीप में वीतरागी तप तपते हैं । भवघट से पार उतरने दो धर्म ध्यानो के स्वामी रत्नत्रयी तपस्यारत होकर पंचाचार पालते और सचेलक (आर्यिका ऐलक) होकर भी वीतरागी महाव्रती तपस्या करके भवान्तर में कीर्तिवान मुनि बनते हैं । (अ) निकट भव्य सल्लेखी चारों गतियों (अष्ट कर्मों) के नाशन हेतु वीतरागी तपस्या करते हैं। Jain Education International 100 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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