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________________ (ब) जिन सिंहासन के लिंगी पिच्छीधारी चारों गतियों को नष्ट करने में तत्पर रहते हैं। 340- चतुर्गति और अष्टकर्मों के नाशन हेतु रत्नत्रय को पालने के लिए दो धर्म ध्यानों का स्वामी निकट भव्य होता है जो तपस्या द्वारा दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति हेतु चारों कषायों का त्याग करके तपस्या करता हैं । 341- तीर्थकर प्रकृति को बांधने वाला षट् द्रव्य चिंतक श्रावक संघ में अपने आवश्यक पालते हुए निश्चय–व्यवहार धर्म को ध्याता वीतरागी तपस्या करता है । 342- अणुव्रती भी चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में तपस्या करता है। 343- सल्लेखी पुरुषार्थी चार अनुयोगी., निश्चय व्यवहारी, चतुर्विध संघी, दिगंबराचार्य, वीतरागी तपस्वी है । 344- पुरुषार्थी वीतराग तपस्या हेतु आत्मस्थ हो छत्रधारी,, तपस्या इच्छुक सचेलक आर्यिका/ऐलक निश्चय-व्यवहारी संघाचार्य की शरण में जाना चाहते हैं । 345- आर्यिका हो अथवा मुनि श्रमण, अणुव्रती वैराग्य लीन सभी तीसरे शुक्लध्यान की कामना करके नवदेवताओं की भक्ति में लीन होते हैं । 346- तीन धर्म ध्यानों का स्वामी निकट भव्य छह अंतरंग और छह बाह्य तप षट् आवश्यकों के साथ करता हैं । 347- देवता भी तीर्थकरत्व के लिए तरसते हैं और दो धर्मध्यानों के साथ षट् द्रव्य में श्रद्धान रखते हैं अथवा कैवल्य और तीर्थकरत्व के लिए दो धर्म ध्यानों का स्वामी षट् द्रव्य चिंतन और षट् आवश्यक करता है । 348- पंचाचारी पुरूषार्थ से सल्लेखना तत्पर सचेलक तपस्वी हैं, जो ऐलक अथवा आर्यिका बनकर भी तप करते हैं । तथा रत्नत्रय और दशधर्म पालन का वातावरण बनाते हैं । 349- भवचक्र से पार होने और सिद्धत्व पाने को अंतहीन भटकान तथा चार गतियों से बाहर निकलना आवश्यक है । 350- वीतरागी तपस्या के लिए तीन (मन वचन काय की) समतायें और सल्लेखना तत्परता सहित द्वादश भावना तथा द्वादश तप तपे जाते हैं । 351- वे पंचाचारी आराधक स्वयं तीर्थ हैं जो पंच परमेष्ठी का ही ध्यान करते हैं । 352- चतुर्गति, भवघट, वीतराग आत्मस्थता, रत्नत्रय, तप, केवलत्व, पंचमगति साधना ही कम है। 353- स्वसंयमी, आरंभी गृहस्थ की स्थिति से पंचमगति की भावना घर में भाते हैं । 354- भवघट से पार होने दो धर्म ध्यानों की भूमिका से ही उठकर तीन धर्मध्यानों की भूमिका बनाने पर रत्नत्रय पलता है 355- पंचमगति को लक्ष्य में रखने वाला अदम्य पुरुषार्थी वैराग्य वीतरागता आने पर आत्मस्थ होकर पुरुषार्थ बढ़ाते हुए सप्त तत्त्व चिंतन करता हुआ अपनी तपस्या उन्नत करता है । 356- निकट भव्यत्व भवघट से तिरा देता है । 357- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी चार धर्म ध्यानी बनकर (सप्तम गुणस्थानी) चतुराधन करता है । 358- चारो कषायों को त्यागने वाला पुरुषार्थी अनंत चतुष्टय की भावना रखता वीतरागी तपस्या तपता है । 359- अर्धचकी, स्वसंयमी चतुराधन द्वारा दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से रत्नत्रयधारी तपस्वी बनकर वीतरागी तप करता है । 360- उपशमी तपस्वी वीतरागी तपस्या करता है । 361- सिद्धत्व के लिए अष्टापद जैसी लगन और रत्नत्रयी प्रयास, पंचाचारी पुरुषार्थी द्वारा पक्षी को भी पुरुषार्थ का लाभ दिलाते हैं । 101 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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