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________________ (445) वातावरण चतुर्गति क्षय हेतु प्रतिमा धारण और दो धर्म ध्यानों से प्रारंभ होता है । वह वातावरण तीन धर्मध्यानी बनना भी प्रगति है। (446) षट् द्रव्यों का श्रद्धान पंचम गतिदायी, युगल श्रृंगों पर संघ के समीप वैयाव्रत्य के झूले के साथ गुणस्थानोन्नति कराताहै तथा सल्लेखना की दृढ़ता देकर अरहंत पद तक पहुंचाता है । भवघट को छेदने तब वैराग्यमय आत्मस्थता और पुरुषार्थ सहित सप्त तत्त्व चिंतनयुक्त वैराग्य लाते हैं । (447) (अ) संघाचार्य की शरणागत आरंभी गृहस्थ भी गृह त्यागने तत्पर रहता है। (ब) महामत्स्य सा वजवृषभनाराच संहनन होने पर भी भवघट तिराने निश्चय-व्यवहार धर्म और षट् द्रव्यों का श्रद्धान आवश्यक होते हैं । (448) दश धर्म साधना त्यागी को निश्चय-व्यवहार धर्म के साथ वैराग्य और षट् द्रव्य श्रद्धानी रखता है चार धर्मध्यान और वैराग्य त्यागी की पंच परमेष्ठी भक्ति सार्थक करते हैं । (449) (अ) रत्नत्रय और तीन धर्म ध्यान त्यागी को संघस्थ शरण दिला गुणस्थानोन्नति वैराग्य कराते हैं (ब) पंच परमेष्ठी आराधन आत्मस्थता से चार घातिया नष्ट कराते हैं। (450) निश्चय-व्यवहार धर्म और दो धर्मध्यान एकदेश त्यागी को संघस्थ प्रतिमाधारी की तरह वैराग्य की ओर ले जाते और पंच परमेष्ठी भक्ति में सहायक होते हैं। तीर्थकरत्व/केवलत्व ही चार घातिया कर्मों के क्षय में सहायक होते हैं । (451) सल्लेखी युगल श्रृंगों पर स्थित जिन लिंगी संघ के समीप वैराग्य धारण कर अच्छी समाधिमरण कर सकता है । वातावरण चार शुक्लध्यानों का बन सकता है । (452) (अ) दश धर्म तपस्वी को रत्नत्रयी निश्चय-व्यवहार धर्म से जोड़ते और वैराग्य धारण में सहायक होते हैं। जब चतुराधन करना सहज होता है । (ब) चार धर्मध्यान त्यागी को वैराग्य से जोड़ते हैं । (453) पंचाचार पालते हुए त्यागी ने स्वसंयमी की साधना की, पूर्व में उसका वातावरण अत्यंत अस्थिर था । (454) गुणस्थानोन्नति करते मुनियों के संघ में वैराग्य धारण करके पंच परमेष्ठी आराधन करता तपस्यारत था और भवघट तिरने तीर्थकर प्रकृति बांध अष्ट कर्मोजन्य चतुर्गति भ्रमण का क्षय किया । (455) (अ)चौदह गुणस्थानी भवघट तिरने वातावरण को पंच परमेष्ठीमय बनाया । (ब) वातावरण तीसरे शुक्लध्यान का हो गया । (458) (अ) स्वसंयमी इच्छा निरोध त्यागी ने पंचाचार पाला । (ब) लोकपूरणी सल्लेखी होकर ही उसने चौथे शुक्लध्यान की प्राप्ति की । (460) (अ) गुणस्थानोन्नति करता मुनियों का संघ । (ब) ढ़ाईद्वीप में पुरुषार्थी तीर्थकरत्व का पुण्यवान था । पंचमगति तक उसने दुध्यानों को दूर रखा और स्वसंयमी बनकर तीर्थकरत्व की साधना की। उसका वातावरण दूसरे शुक्लध्यान का था । (462) स्वसंयमी निश्चय-व्यवहार धर्मी षट् द्रव्य श्रद्धानी था । उसका वातावरण तीसरे धर्मध्यान का था । (463) दो धर्मध्यानी त्यागी वह निकट भव्य आरंभी गृहस्थ था। उसका वातावरण तीसरे धर्मध्यान का बना । 74 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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