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(384-385) अस्पष्ट । (386) (अ) दो तपस्वियों ने तद्भवी मोक्ष का साधन बनाया और तप किया रत्नत्रयी वातावरण में ।
(ब) अस्पष्ट । (387) (अ) सल्लेखी ने वैराग्य धारकर पंच परमेष्ठी आराधन किया ।
(ब) तीन शुक्लध्यानी वातावरण बनाया । (388)
ये नवदेवता हैं - अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिन चैत्यालय।
(अथवा जन्म के नौ योनि स्थान भी दर्शाते हैं ) । (389) यहाँ स्वास्तिक के रूप में जीव की चार विग्रह गतियों का वर्णन है। (390) यह संसार की चार गतियाँ हैं जिनमें जीव अनादिकाल से भटक रहा है । (391) " "वही " " "। (392) "उल्टा" यह स्वास्तिक संसार में जीव की "पर्याय अवनति" का द्योतक है। (393) "कर्मन की 63 प्रकृति नाशन" | (394) यह गृहस्थों/गृहियों के आवास के द्योतक हैं, जो दीवारों से घिरे दरवाजों और कक्षों से युक्त हैं और आत्मा में झांकने
का प्रयास सामायिक से कराते हैं । (395) यह बारह तप करता आत्मस्थ तपस्वी के व्रतों की अंकन दर्शाता है । (396-99) चार गतियों वाली प्रत्येक जीव की संसार में "उन्नति" वाला यह स्वस्तिक है । (400) ये संकेत संसार में जीव की आत्म साधना के भरत और ऐरावत के क्षेत्र में ठीक एक घर में नर और नारी के अलग-अलग
' आत्म साधना के क्षेत्र हैं । (401-403) अस्पष्ट । (404) (अ) निकट भव्य ने सल्लेखना द्वारा जंबूद्वीप में समाधिमरण किया और केवलत्व पाया।
(ब) वातावरण दूसरे धर्मध्यानी का भी उन्नति कारक हो सकता है । (405) (अ) पंच परमेष्ठियों का मंत्र उच्चारण या ध्यान भी वैराग्यमय वातावरण में सल्लेखी को साधना में सहायक बनता है।
(ब) तीन धर्मध्यानी साधक का वातावरण है । (406) (अ) वह दो धर्मध्यानों का स्वसंयमी, महाव्रत का पोषक और वैराग्य को उत्तरोत्तर बढ़ाता है ।
(ब) चार धर्मध्यानी वातावरण (ध्यानस्थ मुनि का) है । (407) (अ) तपस्वी पंच परमेष्ठी आराधन में लीन है ।
(ब) तीन धर्म ध्यानमय वातावरण (उच्च श्रावक का है ) (408) (अ) पंच परमेष्ठी आराधक तपस्वी स्वसंयम द्वारा इच्छा निरोध कर लेते हैं ।
(ब) केवली समुद्घात में आत्मा एक-एक समय में दंड, प्रतर, कपाट और लोकपूरण करके वापस 4 समयों में कपाट,
प्रतर, दंड होकर अपने शरीर में आ जाती है । (409) अस्पष्ट ।
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