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________________ (350) (अ) वैयावृत्ति के झूले पर उस तीन धर्मध्यानी का वातावरण रत्नत्रयमय हो जाता है। उसे सल्लेखना का पुरुषार्थ और वातावरण मिलता है । (ब) वातावरण तीन धर्मध्यान वाला अनुकूल है I (351) (अ) जाप जपते हुए पंचम गति का साधक सल्लेखना लेकर / पुरुषार्थ तीर्थकर प्रकृति का बनाकर दूसरे धर्मध्यान से भी दूसरे शुक्लध्यान को पंचाचार द्वारा प्राप्त कर सकता है । (ब) अस्पष्ट । (अ) चातुर्मास में पंचाचारियों के साथ त्यागी वैराग्य और चतुराधन से परिचित होते हैं । (ब) तीन धर्म - ध्यानों की भूमिका से क्रमोन्नति द्वारा दूसरे शुक्लध्यान का वातावरण मिल जाता हैं। (अरहंत पद) (अ) द्वादश भावना भाते इस ढाईद्वीप में ही कीर्तिमान श्रमण निश्चय व्यवहारी संघाचार्य होते हैं । (ब) चार धर्म - ध्यानों वाला वातावरण ही सही वातावरण है । (सप्तम गुणस्थानी ) (अ) चातुर्मास में महिलाऐं और पुरुष सम्यक्त्व धारते हैं और वातावरण को चतुराधनी बना देते हैं । (ब) अरहंत के पादमूल में सही वातावरण मिलता है । (352) (353) (354) (ब) गुणस्थानी सीढ़ियां चढ़ते वह रत्नत्रयी पथ पर पंचमगति के लिए तैयारी करता युगल पर्वत के शिखरों पर संघ में मांगीतुंगी / उदयगिरि खण्डगिरि (कुमारी पर्वत) जाता है जहाँ वैराग्य का वातावरण और सल्लेखना हेतु उसे अनुकूल मिलता है । ( 355 ) से (358) अस्पष्ट । (359) (360) (अ) जंबूद्वीप को पंचाचारी बनाने वाला तीर्थंकर प्रकृति का पुरुषार्थ कर लेता है। (ब) दूसरे शुक्लध्यान वाला वातावरण ही इष्ट है । (अ) स्वसंयमी तपस्वी निकट भव्यत्व पाकर परम गुणस्थानोन्नति करता है । (ब) दो शुक्लध्यानी वातावरण बनाना इष्ट है । (361) (अ) सल्लेखना लेकर दूसरे धर्मध्यान का स्वामी सप्त तत्व चिंतन करने वाला वैराग्य प्राप्त कर लेता है। (ब) पंच परमेष्ठी ध्यान से प्राप्त वातावरण (पुण्यात्मक है) (अ) त्रिगुप्ति और वैराग्य धारण करके वह पंच परमेष्ठी को ही स्मरण करता है । (ब) आर्यिका / त्यागियों ने स्वसंयम साधा । (362) (363) (अ) ढ़ाईद्वीप में वैराग्य छाया । . (ब) दो धर्मध्यान वाला एकदेश त्यागी था । (364) (अ) तप द्वारा प्राप्त ज्ञान चेतना जागृत होकर तीर्थकरत्व / कैवल्य प्राप्त हुआ । (ब) दो धर्मध्यानों वाला वातावरण था । (385) (366) अस्पष्ट । (367) (अ) जंबूद्वीप में वह भव्य तपस्वी, संघशीर्ष था जिसने चतुराधन करते हुए वातावरण को सप्त तत्व चिंतन से प्राप्त किया (ब) अस्पष्ट । Jain Education International 69 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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