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________________ (338) (अ) पुष्पदंत का लांछन मगर (ब) मुक्ति पथ हेतु गुणस्थानोन्नति, सल्लेखना और दूसरे शुक्लध्यान की साधना द्वारा ढाईद्वीप में चतुराधन से ही संभव होती है। (339) (अ) पुष्पदंत का लांछन मगर । (ब) साधक की गुणस्थानोन्नति ढाईद्वीप में वीतराग तप से ही संभव होती है। (340) (अ) अस्पष्ट। (ब) भवघट से पार होने दूसरे शुक्ल-ध्यान की प्राप्ति तपस्वी ने तीन धर्म-ध्यानी पंचम गुणस्थानी वीतरागी तप के वातावरण से प्रारंभ की। (341) (अ) तद्भवी मोक्षार्थी पंचम गति का साधक रत्नत्रयी जम्बूद्वीप में था जिसने चार अनुयोगी चतुर्विध धर्म साधना से सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए साधना की । (ब) मानस्तंभ और सिद्धत्व। (342) (अ) छत्रधारी राजा ने वैराग्य धारणकर रत्नत्रयी साधना का वातावरण बनाने षट्दव्यों का चिंतन किया (ब) तद्भवी मोक्षपथी ने केवलत्व प्राप्ति के वातावरण का तप किया। (स) वह दो शुक्लध्यानी वातावरण अरहंत सिद्धमय था । (343) (अ) अरहंत पद की व्यक्ति से छत्रधारी राजा ने त्याग करते हुए साधक बन सल्लेखना लेकर अनुकूल वातावरण बनाया (ब) भवघट से तिरने एक रागी हृदय ने ऐलक (अथवा आर्यिका) बनकर उपशम द्वारा वैराग्य धारण किया । (344) (अ) पंच परमेष्ठियों की आराधना करते हुए पंचमगति को प्राप्त करने युगल श्रृंगों पर मूल जिनशासन की शरण में पहुंचे जहाँ वैयावृत्त्य का झूला मिलता है और तीन शुक्ल-ध्यानी वातावरण भी । (ब) जम्बूद्वीप में आत्मस्थता दो धर्म-ध्यानी को पुरुषार्थ उठाते हुए चार शुक्लध्यानी वीतरागता तक ले जाती है। (345) (अ) एक गृही ने आरंभी गृहस्थ की स्थिति को त्यागते हुए अष्टापद की तरह रत्नत्रय साधकर घर में ही सामायिक प्रतिमाएं और षट् आवश्यक द्वारा वीतराग तप किया । (ब) उसका वातावरण तीन धर्मध्यानी रत्नत्रयी था । (346) (अ) चार गतियों को समाप्त करने के लिए पुरुषार्थवान सल्लेखना आवश्यक होती है जिसे उच्च श्रावक/आर्यिका क्रमशः गुणस्थानोन्नति करके वीतराग तप द्वारा प्राप्त करते हैं । (ब) गुणस्थानोन्नति करते हुए दो शुक्लध्यानी वातावरण बना । (347) (अ) महाव्रत की पिच्छी और वीतराग तप ही पंच परमेष्ठी की आराधना हैं । (ब) अस्पष्ट । (348) (अ) द्वादश अनुप्रेक्षा द्वारा निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण चार गतियों का भ्रमण छुड़ाने वाले अदम्य पुरुषार्थ है । (ब) तब दूसरे शुक्लध्यान का वातावरण बनता है । (349) (अ) अदम्य पुरुषार्थ बार-बार बढ़ाते हुए सल्लेखी अपना वैराग्य और आत्मस्थता बढ़ाता है । जिस से उसे तीर्थकर प्रकृति का "बंध' बंधकर गुणस्थानोन्नति होती है । 68 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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