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(ब) ढाईद्वीप में रहकर ही शुक्लध्यान वीतराग तप और आत्मोन्नति प्राप्त होते हैं जिसकी भूमिका में गृहत्याग उत्सर्पिणी
अवसर्पिणी में और उन्नति स्वर्ग-नरक और आत्मोन्नति का रहस्य अनादिकाल से चलता आ रहा है । (307) (अ) चतुराधन पंचाचारी सल्लेखी समाधिमरण के लिए रत्नत्रयी जिनदेव की शरण में वीतरागी तपस्वी बना ।
(ब) रत्नत्रयी कायोत्सर्गी का तप जो तीर्थकरत्व तक पहुँचाता है (308) (अ) अस्पष्ट।
(ब) जिनशासन के शार्दूल की शरण में देव और स्थावर भी हैं। (309) (अ) पंचरंगी 'लेश्या' द्योतक जिनध्वजा।
(ब) जिनध्वजा के नीचे एक ओर ऊँ और दूसरी ओर उसके स्वागत में खड़ा मनुष्य । (310)/ (311) अस्पष्ट। (312) साधक निकट भव्य है जिसने चतुराधन करते हुए समाधिमरण से अपने वीतरागी तप को पूर्ण किया । (313) अस्पष्ट। (314) (अ) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने अणुव्रती बनकर सल्लेखना धारण करते हुए वीतरागी बनकर तप किया
और अरहंत अवस्था तक क्रमोन्नति की।
(ब) दो शुक्लध्यानी वातावरण रत्नत्रयी साधनामय ही आदि जिनमार्ग है जो केवलत्व तक दिलाता है (315) (अ) संभवजिन का 'घोड़ा लांछन । वैभव त्याग से ही गुणस्थानोन्नति।
(ब) गुणस्थानोन्नति करने चतुराधक ने दो धर्म ध्यानों की भूमिका से ही स्वसंयम धारण किया । (अ) कायोत्सर्गी तपस्वी इतना तपलीन था कि लताऐं उसके आसपास मंडप सी बना गई। उसे पूजने वृषभ के साथ भक्त आया वे आदिजिन हैं। तपस्वी तप में लीन रहता है । (ब) भवघट से पार उतरने दो धर्मध्यानों के पुरुषार्थी ने आरंभी गृहस्थ अवस्था से निश्चय-व्यवहारी संघाचार्य श्रमण
की शरण में तीसरे शुक्लध्यान हेतु वातावरण प्राप्त किया । (317) (अ) कायोत्सर्गी तपस्वी का उग्र तप था कि लता मंडप ने उसे ढंक लिया ।
(ब) कायोत्सर्गी जिन मुद्रा महाव्रती की। शेष अंकन अस्पष्ट । (अ) रत्नत्रयी कायोत्सर्गी तपस्वी ।
(ब) वैयावृत्त्य का झूला पाने वाला वीतरागी तपस्वी पंच परमेष्ठी लीन पंचांचारी था । (319) (अ) अस्पष्ट ।
(ब) पुरुषार्थ उठाते हुए उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में आरंभी गृहस्थों ने सल्लेखना धारण करके चार शुक्लध्यानों वाला
वीतराग तप धारा। (320) (अ) जिनध्वजा कलश सहित। (ब) समाधिमरण करने वाला सल्लेखी रत्नत्रयी तपस्वी चतुराधक था जिसने
वीतराग तप करने चतुराधन किया । (321) (अ) ऐलक ने उपशम द्वारा अनुकूल वातावरण उत्तरोत्तर बनाकर वीतराग तप किया ।
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