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(286) जाप जपने से वीतरागी साधना बढ़ती है । (287) पुरुषार्थ उठाते हुए छत्रधारी साधक आत्मस्थ होते हुए सल्लेखना लेकर चतुराधन करते हैं । (288) दो धर्मध्यानी आरंभी गृहस्थ भी तीन धर्म-ध्यानी स्थिति से पंचमगति की साधना और चतुराधन कर सकता है । (289) अरहंत और केवली अवस्था साधक को वीतरागी तप से प्राप्त होती है । (290) चारों कषायों को तज करके गुणस्थानोन्नति से काला? में वीतरागता सुरक्षा देती है। (291) स्वसंयमी व्यक्ति आरंभी गृहस्थ होकर भी षट् आवश्यक तत्पर रहता है । (292) समाधिमरण करता सल्लेखी रत्नत्रय का धारक वीतरागी तपस्वी होता है । (293) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी ने पुरुषार्थ किया । (294) त्रिलोकीनाथ केवली लोकपूरणी समुद्घात करने हेतु समवशरण के अंदर भी चतुराधन लीन सिद्ध साधक हैं । (295) भवघट से तारने दो शुक्ल-ध्यान (बारहवाँ गुणस्थान) ही आधार हैं । (296) सिद्धत्व का पुरुषार्थ लोकपूरण करने वाले के द्वारा पंच परमेष्ठी की आराधना करते महामत्स्य जैसा, उत्तम संहननी
साधक के रूप में गुणस्थानोन्नति करता है । (297) संघाचार्य रत्नत्रयी वीतरागी हैं जो पंचम गति हेतु चतुराधन करते हुए जंबू व्दीप में अरहंत सिध्द को ध्याते हैं और वीतरागी
निश्चय व्यवहार धर्म को पालते हैं। (298) रत्नत्रयी जंबू व्दीप में निकट भव्य ने रत्नत्रय पाला जिसे किसी भव में छोड़ा था। (299) त्रिगुप्ति से पंचमगति है। (300) तीर्थकरत्व मात्र पुरुष द्वारा ही संभव है । (301) भवचक्र भी कालचक्र की तरह षट्खण्डी है । (302) अस्पष्ट/अपठ्य। (303) (अ) जियो और जीने दो
(ब) भवचक्र से पार उतरने दोनों बंधुओं ने वीतरागता धारण करके तपस्या की। भवनों को त्याग कायोत्सर्गी तप किया। (304) (अ) जन्म होने पर स्वस्तिक की चार गति भ्रमण आसन पर जन्म लेता हुआ जीव भी तीर्थकरत्व के लिए जिनशासन
की शरण लेकर वीतरागी तप और संघाचार्य की शरण सहित रत्नत्रय की साधना करके कीर्तिवान चतुर्विध संघाचार्य की स्थिति पा लेता है। अन्यथा कषायों में पड़कर प्रत्येक मनुष्य भव का भी जन्मा जीव जीवन बिगाड़ लेता है। (ब) तीर्थकरत्व और चतुर्विध जिनशासन की शरण आत्मस्थ तपस्वी को संघाचार्य अवस्था में रत्नत्रय पालन करते हुए कीर्तिवान चतुर्विध संघाचार्य के रूप में चर्यावान पिच्छी कमंडलुधारी मुनि अवस्था से प्रारंभ होती है, जिसे श्रावक
पड़गाहते हैं। (305) जागृत साधक तपस्या रत रहता है । अरहंत सिद्ध शुद्धात्मा का ध्यान उसे जगाता है। अन्यथा सोता खोता मनुष्य संसार
की चार गतियों में ही लीन रहता है, जिसका सिर और विवेक नहीं रहते । वह अज्ञानी और असंयमी बनकर लौकिकता
में लीन रहता है। (306) (अ) शार्दूल अथवा जिनवाणी का उद्घोष ढोल सी गूंज करता ढाईद्वीप में दो शुक्लध्यान और वीतरागता की प्रभावना
करता है ।
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