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________________ (273) (271) मुनिव्रत को कछुए की तरह पंचम गति के लिए श्रमणाचार्य के संघ में दो धर्म-ध्यानों द्वारा ही बारह अनुप्रेक्षा करते आरंभी गृहस्थ अपनी स्थिति से उठकर श्रावक पद से ऐलक फिर साधक बनता हुआ ढ़ाई द्वीप में दो शुक्ल-ध्यानी वैराग्य प्राप्ति और तप कर लेता है । (272) अष्टकर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण से बचने के लिए सल्लेखना पुरुषार्थ युगल साधक (कुलभूषण-देशभूषण) मुनियों ने आत्मस्थता पुरुषार्थी स्वसंयमी पक्षियों जैसी वैराग्य द्वारा की है । चतुर्विध संघाचार्य के चार अनुयोगी ज्ञान की शरण में चंचल मन को स्थिरता प्राप्त होकर सल्लेखी में उत्साह उठता है। उसे वैयावृत्ति मिलती है। (274) छत्रधारी एवं देशसंयमी साधक दो धर्म-ध्यानों के साथ भी केवलत्व तक की प्राप्ति की पात्रता तीन धर्म-ध्यानी बनकर और अधिक पुरुषार्थ उठाते हुए क्रम से दो शुक्ल-ध्यानों तक की प्राप्ति चतुराधन करता हुआ कर लेता है । (275) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का साधक संघ/घर में सीमाओं में बंधकर स्वयं को चारों कषायों से दूर करता है और कछुए जैसी सजगता से आरंभी गृहस्थ की तीन धर्म-ध्यानी स्थिति से भी सल्लेखना धारण कर चतुराधन करता है । (276) (अ) पंचमगति का साधक पंचाचार करते हुए जंबूदीप में रत्नत्रय की साधना करता चार अनुयोगी निश्चय व्यवहार धर्म की शरण में तीर्थकर प्रकृति का पुण्य बांधता है । (ब) सल्लेखी सप्त तत्त्वों का चिंतन करता हुआ पक्ष पार करता है। (277) साधक/योगी । (278) सांसारिक चतुर्गति पतन दिखलाता उल्टा स्वस्तिक | (279) वीतरागी तप, बारह भावना भावन और जंबूद्वीप में रत्नत्रयी साधना ही जीव को परम इष्ट है । निकटभव्य पुरुषार्थियों ने ही अष्टापद की तरह हार न मानते हुए अर्धचक्री स्थिति से उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काला? में संसार की अंतहीन भटकान से बचकर सल्लेखना धारण की है । (281) भवचक्र से पार होने दो धर्मध्यानों से उठते हुए जंबूद्वीप में अरहंत सिद्ध आराधना करते सरीसृपों ने समताधारी साधक बनकर तीन धर्मध्यानी (आरंभी ) श्रावक की तरह स्वसंयम से इच्छा निरोध किया । (282) भवघट से तिरने तीन धर्म-ध्यानों का सहारा लेकर पंचमगति हेतु चतुराधन करते हुए जंबूद्वीप के रत्नत्रयी वातावरण में चार अनुयोगी वीतरागी संघाचार्यों ने साधना की । (283) केवली भगवन्तों ने वीतरागी अदम्य पुरुषार्थ निरंतर बढ़ाया, और भी बढ़ाया, और और अधिक बढ़ाया । (284) वीतरागी चार अनुयोगी निश्चय व्यवहारी धर्म साधने द्वादश तप तपते हुए गुणस्थानोन्नति करते हैं । (285) छत्रधारी तथा आर्यिका स्वसंयमी इच्छा निरोध करते हैं । (286) जाप जपने से वीतरागी साधना बढ़ती है । (287) पुरुषार्थ उठाते हुए छत्रधारी साधक आत्मस्थ होते हुए सल्लेखना लेकर चतुराधन करते हैं । (283) केवली भगवन्तों ने वीतरागी अदम्य पुरुषार्थ निरंतर बढ़ाया, और भी बढ़ाया, और और अधिक बढ़ाया । (284) वीतरागी चार अनुयोगी निश्चय व्यवहारी धर्म साधने द्वादश तप तपते हुए गुणस्थानोन्नति करते हैं । (285) छत्रधारी तथा आर्यिका स्वसंयमी इच्छा निरोध करते हैं । (280) 64 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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