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________________ तथा वीतरागता बढ़ाने में भी वैयावृत्ति सहयोग कराती है । (ब) महाव्रत धारण और चतुर्विध संघाचार्य की छत्रछाया, अरहंत पद प्राप्ति में सहायक होते है। (स) अपठ्य। (255) (अ) त्रिलोक संस्थानी पुरुष। (ब) समवशरणी गंधकुटी। (अ) षट् द्रव्य चिंतन से साधक को स्वसंयम की प्रेरणा धर्म ध्वजा की शरण में मिलती है । (ब) तथा अदम्य पुरुषार्थ से भवघट से तिरा जाता है । (257) यह चतुर्गति का संसार है जहाँ पांचवी गति द्वारा ही केन्द्र से उर्ध्वगमन द्वारा पार हुआ जाता है। (258) अपठ्य। (259) चतुर्गतियों के नाशने को साधक छत्रधारी राजा ने पंचाचारी मार्ग लिया और शिखर तीर्थ / (कैलाश तीर्थ) से षट् द्रव्य चिंतन करते हुए ऊपर उठे। संघस्थ श्रमणाचार्य की शरण में अर्धचक्री ने सल्लेखना पुरुषार्थ दो धर्मध्यानों के साथ भव्यत्व की प्राप्ति करके गुणस्थानोन्नति की। (261) अष्टकर्म जन्य चार गतियों से निकलने के लिए सल्लेखना का पुरुषार्थ करते हुए निकट भव्य चतुराधन करता है और साधक बनकर 6 भवों में मोक्ष प्राप्त करने का तप कर लेता है। (262) साधक चार घातिया कर्मो के नाशन हेतु अदम्य पुरुषार्थ बढ़ाकर केवली पद भी क्रमोन्नति से प्राप्त करता है और रत्नत्रयी गुणस्थानोन्नति का वातावरण बनाते हुए वीतराग तप बढ़ाता है । (263) पुरुषार्थी दो शुक्लध्यानों का लक्ष्य करके साधना प्रारंभ करते हैं साधक या आर्यिका ढ़ाई द्वीप में ही होते हैं और दो शुक्लध्यानी वीतरागी तप बढ़ाते हुए साधना करते हैं । भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानी भी तीन शुक्ल-ध्यानी साधना का लक्ष्य बनाकर साधना करते हुए संघ के चरणों में चतुराधन करके वीतरागी तप करते हैं । वीतराग रत्नत्रयी तप के लिए षट् आवश्यक करते हुए संघाचार्य की शरण में संयम साधना हेतु जाते हैं । (266) सल्लेखी अरहंत भक्ति द्वारा जंबूद्वीप में तीन धर्म-ध्यानों से साधना प्रारंभ करते हुए अर्धचक्री होकर भी समवशरण मे तीर्थकर के पादमूल में रत्नत्रयी पंचाचार करते हुए सिद्धत्व की भूमिका बना सकते हैं । (267) गुणस्थानोन्नति करता चतुर्थ गुणस्थानी भवघट से तिरने वाला तीर्थकर प्रकृति कर्म बांधने का पुरुषार्थ कर सकता है। भवघट से तिरने दो धर्म-ध्यानी व्यक्ति भी दो शुक्ल-ध्यानों की क्रमशः प्राप्ति चंचल मन पर संयम करके वैराग्य / वीतरागता द्वारा प्राप्त कर सकते हैं । (269) रत्नत्रयी जंबूद्वीप में पुरुषार्थी पक्षी भी भवघट से तिरने दो शुक्ल-ध्यानी तीर्थकर के पादमूल में साधक और छत्रधारी होते हुए भी पुण्य बांधकर वैराग्य साधते और सल्लेखना द्वारा क्रमोन्नति से अरहंत हो जाते हैं । (270) भवघट से तिरने दो शुक्ल-ध्यानों के लक्ष्यधारी जंबूद्वीप में रत्नत्रय धारण करके आत्मस्थ साधक बनकर रत्नत्रयी दश धर्मी वातावरण बनाते और वीतराग तप तपते हैं । (264) 63 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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