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________________ (231) अनुकूल वातावरण का निर्माण अर्धचक्री ने किया । (232) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी ध्यानस्थ योगियों ने स्वसंयम धारण किया । (233) अरहंत पद की प्राप्ति श्री शिखर तीर्थ पर स्वसंयम से ही संभव है (अथवा स्वसंयमी ने शिखर तीर्थ पर/जिन मंदिर के निकट अरहंत पद को पाया)। (234) खंडित । (235) तपस्वी पंचपरमेष्ठी आराधक है । (अस्पष्ट) (236) सल्लेखी ने अष्टापद को चुना (आदि प्रभु ने अष्टापद पर निर्वाण पाया) (237) दो शुक्लध्यानी क्षपक घाति चतुष्क क्षय करने वाला, वैराग्य रखता है । (238) एक आरंभी गृहस्थ ने त्रिगुप्ति धारण करके ध्यानस्थ होकर दो शुक्लध्यान सप्त तत्त्वों का चिंतन करके और रत्नत्रय धारण करके पाया । (239) अर्हत अथवा केवली पद प्राप्ति के लिए पुरुषार्थी (सल्लेखी का चार शुक्लध्यानों वाला एक तीन धर्म ध्यानी जीव ही कर सकता है। (240) जिस वातावरण में अंतरंग तीन धर्म ध्यान पलते हैं वहाँ चौथे शुक्लध्यान की प्राप्ति वाला वैराग्य भी पल सकता है । (241) सल्लेखना का संकल्प लेकर एक सल्लेखी आत्मस्थ वैराग्य में क्षत्रधारी राजा भी रत्नत्रयी योगी तथा रत्नत्रयधारी तपस्वी जैसा उत्कृष्ट वैराग्य पा सकते हैं । (243) चौथा शुक्लध्यान पाने के लिए ही केवली समूह रत्नत्रयी वैराग्य बनाए रखते हैं । पुरुषार्थी पंचमगति के साधक सहज ही दूसरे शुक्लध्यान को प्राप्त करके अपनी साधना अरहंत सिद्धमय जंबूद्वीप में पूरी करते हैं। (245) एक संघ की शरण में गृहस्थ ने वैराग्यमय आत्मस्थता प्राप्त करके चतुराधन किया और उसी तपस्वी ने भवांतरी गुणस्थानोन्नति भी की। (246) लोकपूरणी केवली तपस्वी वीरधर्मी होते हैं। (247) खंडित । (248) वीरधर्मी (शार्दूल चिन्ही) देव और वृक्ष भी होते हैं। (249) भवघट से तिरने के लिए चारों कषायों के त्याग के साथ रत्नत्रय धारण आवश्यक होता है। (250) अरहंत पद प्राप्ति के लिए त्यागी को दो शुक्लध्यानों का स्वामी बनना पड़ता है चाहे वह ऐलक, आर्यिका अथवा छत्र धारी राजा भी क्यों न हो। रत्नत्रय और वीतराग तप धारण सहित सल्लेखना भी आवश्यक है। (251) सल्लेखी ने कषायें त्याग नदी तट पर आत्मस्थता से सल्लेखना ली और क्रमशः वातावरण उन्नत करते हुए सल्लेखना ले लेकर अनेक तपस्वी समाधिस्थ हुए। (252) खंडित। (253) भवचक्र से पार होने के लिए ढ़ाई द्वीप में दो शुक्लध्यान और वीतराग तप आवश्यक है। (254) (अ) रत्नत्रयी जंबूद्वीप में षद्रव्यों का चिंतन योगी साधक को वैयावृत्ति का झूला भी दिला देता है (सेवा मिलती है) 62 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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