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________________ (180) अर्धखंडित/दशधर्म का पालन ही दूसरे शुक्ल ध्यान तक पहुंचाता है। 1181) जाप की मर्यादाएं और वैराग्य ही लक्ष्य तक पहुंचाते हैं। (182) खांडत (183) भवघट से पार उतरना ही इष्ट है। (184. 187) खंडित और अपठ,य (188) उपशम और क्षयोपशम भी पुरुषार्थ से ही प्राप्त होते हैं। (189) ध्यानस्थ योगी/ कायोत्सर्गी समाधिमरण के व्दारा पंच प्रभु स्मरण करके वैराग्य बनाता है। (190) (चतुर्गति अथवा ध्यानस्थ योगी के चरण) खंडित । (191, 205) खंडित । (206) तीन धर्मध्यान । (207) चतुराधन । (208, 209) खंडित । (210). ढाईद्वीप । (211) अरहंत पद की प्राप्ति आरंभी गृहस्थ को भी तीन धर्म ध्यानों और स्वसंयम के द्वारा ही सुलभ होती है । (212) भवघट से तिरना । (213-216) खंडित । (217) पुरुषार्थी रत्नत्रयी अणुव्रती । (218, 219) खंडित । (220) संघाचार्य की शरण में दीक्षा पुरुषार्थी षट् आवश्यक करते हुए संसार चक्र को पार कर सकता है । (221, 222) खंडित अपठ्य । (223) संभवतः बनावटी है । इसमें तारतम्य रहित गूदा गादी में षट् द्रव्य, निकट भव्य, स्व संयम अंकित हैं । (224) निकट भव्यत्व । गूदागादी में स्वसंयमी तपस्वी और वैराग्य अंकित है । (225) अपठ,य (226) खंडित । (227) सल्लेखी अष्टापद की तरह दृढ़ आत्मस्थ होकर पुरुषार्थ बढ़ाते हुए क्रमोन्नति से तीर्थकर बन सकता है जिसके समवशरण लगते हैं । (228) आत्मस्थ वैराग्यता अरहंत सिद्धभक्त. पुरुषार्थी. संयमी होने और पंच परमेष्ठी आराधना का फल है । (229) तीन धर्मध्यानी दो शुक्लध्यानों तक नवदेवता आराधन से ध्यानस्थ योगी बनकर किसी भी काल में केवली बनने का पुण्य सल्लेखना से पंचाचारी समाधिमरण करने हेतु निश्चय-व्यवहार धर्मी संघाचार्य के वातावरण में ही पाता है । (230) अष्टकर्म जन्य चार गतियों के नाशने हेतु सल्लेखना धारी समाधिमरणी साधक अदम्य पुरुषार्थ द्वारा केवलत्व प्राप्त करने हेतु स्वसंयम धारता है। 61 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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