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(152) भवचक्र के पार उतरने चार घातियों का नाश और पुरुषार्थ के साथ पंचमगति की साधना वाले वातावरण की
आवश्यकता रहती है। (153) मुक्ति प्राप्त करने वाला तपस्वी श्री सम्मेद शिखर समाधि क्षेत्र पर दो धर्म ध्यानी छत्रधारी था जिसने ध्यानस्थ होने
ऐलकत्व स्वीकारा था। (154) भवघट से तिरने के लिए दो धर्म ध्यानों वाला भी स्वसंयमी हो जाता है । (155) पंचमगति का साधक वैराग्यवान होता है। (156) जिनपथी सल्लेखी, तीर्थकरत्व का अधिकारी बनकर दूसरे शुक्लध्यान की भूमिका बनाता है । (157) खंडित सील । (159) भवचक्र से पार उतरने हेतु दो धर्मध्यानों वाले जीव को दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति तथा चारों घातिया कर्मों का नाश
करना आवश्यक है। (160) चारों शुक्लध्यानों की प्राप्ति दो धर्मध्यानी को पंच परमेष्ठी के आराधन से ही होती है । (161) दो शुक्लध्यानों का स्वामी संघाचार्य की शरण में रत्नत्रय का सेवन करते हुए वातावरण में चतुराधनरत बनता है । (162) दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी संघाचार्य की शरण में भरत ऐरावत क्षेत्रों में जंबूद्वीप वाली रत्नत्रयी समता सहित आगे
तीसरे शुक्लध्यान का स्वामी बनकर पुरुषार्थ उठाते हुए भव से मोक्ष पाता है । (163) गुणस्थानोन्नति करता साधु जम्बूद्वीप में आत्मस्थता से दो शुक्लध्यानों का वातावरण बनाकर मोक्षपथी साधक होता है (164) तीसरे शुक्लध्यान की ओर बढ़ता क्षपक अरहंत/सिद्ध वाले वातावरण में लीन होकर सिद्धत्व की शरण वाला पंचाचारी
होता है । (165) भवघट से तिरने का एकमात्र साधन रत्नत्रय है । (166) अरहंत अवस्था निश्चय व्यवहारी संघाचार्यों को ही प्राप्त होती है जो अरहंत सिद्ध में लीन हैं ।
दूसरे शुक्लध्यानी का समाधिमरण वैराग्य पूर्ण ही होता है । (168) तीर्थकर की शरण में त्यागी भी वैराग्य लेकर महाव्रत धारण करता है। (169) सिद्धत्व की प्राप्ति मात्र ढ़ाई द्वीप में ही संभव है । (170) खंडित एवं अपठ्य । (171) षद्रव्यों का चिंतन ही छत्रधारी को तपस्वी बनाता है । (172) सल्लेखना के लिए तीन धर्मध्यान और इच्छा निरोधी संयम आवश्यक है। (173) (174) (175) खंडित । (176) अर्धखंडित/भवचक्र पार करने के लिए दो शुक्लध्यान और वैराग्य आवश्यक हैं। (177) केवलत्व और अरहतत्व चतुर्विद संघाचार्यों को मिलते हैं। (178) चतुर्गति भ्रमण का नाश रत्नत्रय से होता है। (179) खंडित
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