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भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी भी तीसरे शुक्लध्यान तक रत्नत्रय से उठ सकता है ।
अस्पष्ट ।
तीन धर्मध्यानी स्वसंयमी रत्नत्रयी स्वामी तपस्या से निश्चय व्यवहार धर्म की प्राप्ति का वातावरण बनाता है ।
सल्लेखना स्वसंयम से ही संभव होती है ।
अरहंत पद तक उठने के लिए छत्रधारी अंतर्भ्रात्मा 12 तप करता और 15 प्रमाद तजता है ।
अर्धचक्री भी चतुराधन द्वारा निश्चय व्यवहारमय धर्म के वातावरण वाली पंचमगति की साधना उस वातावरण में बना लेता है ।
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वातावरण को आत्मस्थ बनकर ही पंचमगति हेतु रत्नत्रय के अनुकूल वातावरण बनाना पड़ता है । तीन धर्मध्यानी संसारी जीव भी उनके योग्य षट् आवश्यक और षट् बाह्य व्रत पालते हैं ।
भवचक्र से पार होने दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति तक पंचपरमेष्ठी आराधन, पुरुषार्थ और निश्चय व्यवहार धर्म में विश्वास वाला वातावरण होना आवश्यक है ।
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समाधिमरण, सल्लेखना द्वारा पंचमगति की साधना रत्नत्रय और वैराग्य सहित संपन्न होती है । (एक वस्त्रधारी) ऐलक, अथवा आर्यिका तपस्वी बनकर ही गुणस्थानोन्नति कर सकते हैं । केवली रत्नत्रयी सल्लेखी तपस्वी का वातावरण वैराग्य वाला और वैरागी मुनि का होता है । (142) वैय्यावृत्ति का गुणस्थानी झूला रत्नत्रयी तपस्वी को सहायता करता हुआ वैरागी बनाता है।
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(143) दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी तपस्वी वैराग्य बढ़ाते हुए उत्कृष्ट मुनि बनता है।
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दो धर्मध्यानो का स्वामी अर्धचक्री भी पंचमगति की साधना हेतु दूसरा ( शुक्लध्यान) पा सकता है। ( खंडित है ) गुणस्थानोन्नति से पंचम गति का लक्ष्य ही चतुर्विध संघाचार्य का लक्ष्य होता है । सल्लेखना धारण करने वाला "अणुव्रती" षट् द्रव्यों का चिंतन करते हुए वैराग्य बनाये रखता है । रत्नत्रय की धारणा रखते हुए जंबूद्वीप में दो धर्मध्यानों का स्वामी भी दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी भरत चक्रवर्ती की तरह अंततः बन सकता है।
एक अणुव्रती स्वयं को निश्चय व्यवहार धर्मी साधक बना लेता है ।
तीर्थंकरत्व की प्राप्ति सल्लेखना सहित दृढ़ महाव्रती को वैराग्य बनाए रखने से ही होती है ।
सल्लेखना ही वैराग्य की सफलता है ।
जंबूद्वीप में समता पूर्ण रत्नत्रय सेवन तीसरे धर्मध्यानी को पंचमगति की राह दिलाकर वैराग्य की ओर
ले जाता है।
तीर्थंकरत्व का आधार रत्नत्रयी जंबूद्वीप में षद्रव्य श्रद्धान और स्वसंयम है ।
तपस्वी के तप का आधार स्वसंयम इच्छा निरोध है ।
पंचमगति का साधक सल्लेखना और वैराग्य में तत्पर होता है ।
खंडित सील |
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