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________________ (106) पूर्व के 24 तीर्थंकरों की भक्ति करते हुए पंचाचारी ने सल्लेखना ली और सचेलक होकर भी दशधर्म पालन करते जिनशासन की शरण में रत्नत्रयी वैराग्य धारा । (107) अर्धचक्री ने भवघट का शीर्ष पाने दो धर्मध्यानों से उठकर चार शुक्लध्यानों की प्राप्ति हेतु रत्नत्रय का अवलंबन लिया (108) (खंडित) जंबूद्वीप में दो धर्म ध्यान वाली भूमिका से दूसरे शुक्लध्यान तक की उन्नति हेतु पुरुषार्थमय वैराग्य की आवश्यकता पड़ती है । हर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में अर्धचक्री ने संघाचार्य की शरण लेकर रत्नत्रयी वातावरण जिया है । (109) (110) (111) अष्टकर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण को नष्ट करने के लिए सल्लेखना लेते हुए तपस्वी ने समाधिमरण में वैराग्य पाला । सामान्य वातावरण में आत्मस्थता द्वारा साधक ने सचेलक ने संघाचार्य की शरण में रत्नत्रय मय वातावरण बनाया । (112 ) जंबूद्वीप में वातावरण संयोजन कर आत्मस्थता रखते स्व संयम लिया । (113) एक पुरुषार्थी प्रतिमाधारी संयमी ने वैराग्य द्वारा तीर्थकर प्रकृति साधते हुए जाप करते निकट भव्यता का वैराग्य (114) (115) (116) भवचक्र से तिरने दो धर्मध्यानी साधक षट् द्रव्य चिंतन करते हुए साधु बनकर चतुर्विध संध के ( व्यवहार और निश्चय धर्म) शरण में चले जाते हैं। (117) भव से पार उतरने दो धर्मध्यानी छत्रधारी राजा ने दुर्ष्यानों को दूर कर अरहंत सिद्धमय वातावरण जंबूद्वीप में बनाया । गुणोन्नति हेतु सर्प सीढ़ी का खेल खेलते सल्लेखी महामत्स्य की तरह उत्तम संहनन प्राप्ति से हर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी युगार्ध में अष्ट कर्म जन्य चार गतियों को पार करने हेतु वैराग्य धारण करते हैं । भवघट पार उतरने दो धर्मध्यानी निकट भव्य ने जिन सिंहासन प्राप्ति के लिए सप्त तत्त्व का चिंतन किया और पंचमगति पाने को वैराग्य धारा । एक महाव्रती ने तीसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति तक (बारह) द्वादश तपों की साधना की । योगी ने स्वयं की सीमाओं को बांध कर दो शुक्लध्यानों का पुरुषार्थ बनाया । 12 वे गुणस्थानी तपस्वी ने तीसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति करके रत्नत्रय पालन करते हुए तीर्थंकरत्व पाया । (अ) तीर्थकर प्रकृति अर्जन हेतु सप्त तत्व चिंतन और सल्लेखना धारण निकट भव्य को संघाचार्य की शरण में अर्ध चक्री होने पर भी वैराग्य और तप दिलाते हैं। (118) (119) बनाया । जिनशासन की शरण में तीर्थंकरत्व का पुरुषार्थी तीन धर्म ध्यानी वातावरण से क्रमश: निरंतर उन्नति करते हुए चौथे शुक्लध्यान तक की प्राप्ति चतुराधन से करता है । तीर्थंकरत्व की प्राप्ति हेतु संपूर्ण संघ ही (संघाचार्य सहित) चारों कषायों को त्यागते हैं । (120) (121) (122) (123) (ब) भवचक्र पार करने दो धर्मध्यानों का स्वामी गुणस्थानोन्नति करते अष्टान्हिका व्रतरखता वैराग्यमय तप पालता है। (124) जम्बूद्वीप में वीतराग तप ही इष्ट है । (125) ऐलक भी पुरुषार्थ करते हुए केवलत्व का स्व संयम धारण कर सकता है। Jain Education International 58 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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