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जंबू व्दीप में तीसरे शुक्लध्यान तक का पुरुषार्थ किया और वीतराग तप घारा ।
रत्नत्रयधारी श्रमण का रत्नत्रयी निश्चय-व्यवहारधर्ममय वातावरण ऐलक की भूमिका से संघाचार्य की शरण में प्रारंभ हुआ था जहाँ उसने रत्नत्रय संभालते हुए तपश्चरण किया ।
जंबूद्वीप में भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के श्रावक आरंभी गृहस्थ ने तीन धर्मध्यानों सहित स्वसंयम की कठोर साधना की ।
तीन धर्मध्यानों के सामान्य पुरुषार्थी ने आत्मस्थ होकर (प्रारंभ में) दो धर्म ध्यानों सहित वीतराग तप प्रारंभ किया था और पश्चात ऐलक / आर्थिका की तरह तप किया ।
भवघट से तिरने तीर्थकर प्रभु की शरण आवश्यक है जो तीन धर्मध्यानों से रत्नत्रय सहित प्रारंभ होती है ।
पुरुषार्थ सहित द्वादश अनुप्रेक्षा, निश्चय - व्यवहार धर्म की रक्षा करते हैं ।
आरंभी गृहस्थ जैसा पुरुषार्थ तो पक्षी भी योग धारण करके कर लेते हैं जो दो धर्मध्यानों से प्रारंभ होकर तीसरे धर्म ध्यान तक पंचम गुणस्थान तक जाकर पुरुषार्थ से तप कराता है ।
भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी सम्राट छत्रधारी (छत्री) ने दशधर्म पालते हुए अरहंत सिद्ध भक्ति पूर्वक (निश्चय-व्यवहार धर्म की साधना करते हुए वैराग्य धारण किया ।
"आदि-जिन धर्म की शरण में पशु भी गुणस्थानोन्नति और संयम प्राप्त कर सकते हैं।
भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी ऐलक / आर्यिका ने संघस्थ रहते वैराग्य तप धारा ।
धर्मध्यानी चारों अनुयोगों का ज्ञान निश्चय - व्यवहार धर्ममय मोक्षमार्ग की भूमिका बनाता है ।
भवघट से तिरने वाला दो धर्मध्यानी योगी आत्मस्थ हुआ निकट भव्य है और सल्लेखना तत्पर है ।
दशधर्म धारी वैरागी ही होता है ।
अष्ट अनंत गुणों की प्राप्ति दूसरे शुक्लध्यानी को वीतरागी आत्मस्थ बनाती है ।
योगी द्वारा स्वसंयम और स्व सीमाऐं की घातिया कर्मों से छुड़ाती हैं ।
श्रमणत्व आर्यिका की गुणस्थानोन्नति क्रमण विधि से पंचमगति का साधन दिलाती है और भवघट से तिराती है । भवचक्र से पार होने दो धर्मध्यान भी कालचक्र के विशेष खंडों में पंचम गति का साधन रत्नत्रयी जंबूद्वीप में अरहंत सिद्ध और रत्नत्रय के साथ बनाते हैं ।
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तपस्वी ने वैराग्य को योगी बनकर प्रारंभ किया था ।
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दो शुक्लध्यानी, संघाचार्य, निकट भव्य षट द्रव्यों पर श्रध्दान रखते थे।
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(101) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी योगी, तपस्वी बनकर पुरुषार्थ बढ़ाकर वैराग्य धारण करते हैं / थे। दो धर्मध्यानों का स्वामी सल्लेखी की वैय्यावृत्ति सचेलक होकर भी करने वाला वैराग्य पथ पकड़ लेता है। दोनों ही सल्लेखी अपने आप में पुरुषार्थी तपस्वी थे जिन्होंने पंचाचार पालते हुए सचेलक अवस्था में दो धर्मध्यान पालन किए थे।
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(104) सल्लेखी वैरागी था, जो सम्राट था, सचेलक त्यागी था और कोध मान माया को त्यागकर रत्नत्रयधारी बना था । छत्रधारी त्यागी अपने तप की सुरक्षार्थ वैराग्य धारण कर अवसर्पिणी में रत्नत्रय के धारक बनकर चतुअनुयोगी निश्चय व्यवहार धर्मी थे ।
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