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________________ (55) दूसरे शुक्लध्यान का स्वामी वह निश्चय-व्यवहारी तो एक दो धर्मध्यानी गृहस्थ था जिसने तीन धर्मध्यानों की प्राप्ति के साथ स्वसंयम स्वीकारा था । (56) अस्पष्ट भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानी छत्रधारियों ने उपशमी वैराग्य धारण किया । (57) (58) रिक्त । (59) छत्रधारी ने निश्चय-व्यवहार धर्म अपनाया । (60) दो धर्मध्यानी, एकदेशी तपस्वी, पुरुषार्थी था । (61) गुणस्थानी ने सप्त तत्त्व चिंतन करते वैराग्य धारण किया । (62-66) कुछ नहीं (67) जंबूद्वीप में रत्नत्रयी चतुराधन करते दो धर्मध्यानी युगल बंधुओं ने स्वसंयम धारणकर वैराग्य पूर्ण तपस्या की । (68) रिक्त । वैराग्यवान दूसरे शुक्लध्यान में लीन तपस्वी सल्लेखी है जिसने चारों अनुयोगों का ज्ञान प्राप्त करके संघाचार्य का पद स्वीकारा था । (70) रिक्त । (71) भवचक्र को पार करने दूसरे धर्मध्यान से उठकर दूसरे शुक्लध्यान तक की यात्रा (4th गुणस्थान से 12 वें गुणस्थान तक की) तपस्वी पार करते हैं और सल्ल्ख ना तत्पर रहते हैं । लोकपूरणी, आत्मस्थ तीर्थकर प्रकृति पुण्यवानी है जिसने 2 धर्मध्यानों से (स्वयं एक) छत्री (छत्रधारी) को निकट भव्य और वीतरागी बनाया । भवधट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने तीसरे धर्मध्यान की भूमिका बनाकर (एकदेश व्रती बनकर) रत्नत्रयी तपस्या का वातावरण बनाया। वह एक निश्चय-व्यवहार धर्मी चतुर्विध संघ तपस्वी बना । उपशमी (मांगीतुंगी/उदयगिरि-खंडगिरि/चंद्रगिरि-विन्ध्यगिरि) युगल पर्वतों पर ससंघ विराजमान होकर वीतरागी तपस्यारत हुआ । भवघट तिरने वाले दो धर्मध्यानी योगी ने दो शुक्लध्यानों तक की तपस्या करके केवलत्व पाने, संघाचार्य की शरण में रत्नत्रय धारण कर वीतराग तप किया । (76) छत्रधारी/सम्राट ने चतुराधन करते हुए अदम्य पुरुषार्थमय वीतरागी तपस्या की। (77) दूसरे शुक्लध्यानी ने अष्टकर्म क्षय करने के लिए चतुराधन किया । भवचक्र से पार होकर सिद्धत्व पाने ऐलक ने सल्लेखनामय वीतराग तप किया । गुणस्थानोन्नति वाले वातावरण में आत्मस्थता द्वारा दूसरे धर्मध्यान वाला श्रावक भी चतुराधन सहित सल्लेखना करने वीतरागी तप करता है । (80) भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों से भी आत्मस्थता पाकर ढ़ाईद्वीप में तीर्थकर प्रकृति का पुण्य बांधा जा सकता है । (81) द्वादश अनुप्रेक्षा/बारह भावना से सम्राट/छत्रधारी ने आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तीन धर्मध्यानों के साथ रत्नत्रयी 56 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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