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पाया ।
जंबूद्वीप में तीन प्रतिमाएं धारणकर मुनि संघस्थ हो वैराग्य धारण कर दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति युगल तपस्वियों ने निश्चय-व्यवहार धर्मी गुरुछत्र में की ।
मुनियों के पुरुषार्थी वातावरण में हर उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में दो धर्मध्यानी व्यक्ति भी शुद्ध शाकाहार पालन करके रत्नत्रयी मुनि का वातावरण बना तपस्यारत होते हैं ।
(38) अष्टापद की तरह अपराजेय चक्री भी किसी से पराजित नहीं होते और तपस्या में स्वयंतीर्थ से सामर्थ्यवान होते हैं ।
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अस्पष्ट ।
(40) संघस्थ प्रतिमाधारी ने लोकपूरणी सल्लेखी के चरणों में चारों अनुयोगों का अध्ययन करने गृह त्यागा ।
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काल का स्पर्श शेष पाँचों द्रव्यों को है ।
तीन धर्मध्यानी स्वसंयमी ने ऐलकत्व / आर्यिका पद से वैराग्य धारा ।
परमेष्ठी जाप से भवघट तिरने का साधन दो धर्मध्यानी को भी निकट भव्यता दिलाकर पंचमगति हेतु वैराग्य
दिलाता है।
भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी ऐलक ने नदी तट पर अदम्य पुरुषार्थी रत्नत्रयी तप किया और वैराग्य धारण कर केवलत्व
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अस्पष्ट ।
संघस्थ श्रावक दुर्ध्यान त्यागकर स्वसंयम धारण करते हुए संघाचार्य के समीप रहते हैं ।
भवचक्र पार करने हेतु दो धर्म ध्यानों की भूमिका से पुरुषार्थी ने ऐलक के एकदेश व्रत बढ़ाकर वैराग्य धारण कर श्रमणत्व
अपनाया ।
दो धर्मध्यानों की भूमिका से योगी ने एकदेश स्वसंयम अपनाते हुए वैय्याव्रत्य को पाने का वातारण
बनाया ।
भवघट से तिरने "जिन समवसरण भक्त" ने प्रतिमाधारी बनकर पंचमगति साधन की सत्संगति करके दो धर्मध्यानों सहित योग धारण कर दुयानों को त्यागा ।
स्वसीमाऐं बांधकर भव में रत्नत्रयी साधना दूसरे धर्मध्यानी को इच्छा निरोधी बनाकर तद्भवी मोक्षप्राप्ति की स्थिति तक तपस्वी की पहुंचा सकता है ।
अष्टगुण साधना चतुराधक सल्लेखी को वस्त्रधारी (आर्यिका ) होकर भी वैराग्य की ओर मोड़ती है ।
अस्पष्ट ।
योगी आरंभी गृहस्थ था जो तीन धर्मध्यानों से अपने वातावरण को रत्नत्रयी बनाकर वीतराग तपस्या की ओर मुड़ गया
पंचमगति का साधक भवघट में तिरने का इच्छुक पुरुषार्थी होता है ।
गुणस्थानोन्नति करने वाला वीतरागी ही होता है ।
सर्पसीढ़ी का खेल खेलता सल्लेखी एक ऐलक था जिसने स्वसंयमी बनकर मोक्ष पथ पकड़ा था ।
आत्मस्थ योगी दो धर्मध्यानों वाला योगी था ।
सल्लेखी पुरुषार्थी योगी है ।
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