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________________ (19) धर्मध्यानों के लिए संयम/इच्छा निरोध स्वीकारा था । (लक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए यह यों भी बाएं से दाहिने पढ़ा जायेगा) जिन ध्वजा की शरणागत आदि प्रभु के पथ पर चलते हुए स्वसंयमी ने तीन धर्मध्यानों के साथ आरंभी गृहस्थ होकर भी तप स्वीकार पंचाचार पाला और केवली समुद्घात तक की लोकपूरण स्थिति पर पहुंचे। भवचक्र से पार उतरने सिद्धत्व पद इच्छुक निकट भव्य ने ऐलकत्व फिर मुनित्व पद द्वारा चंचल मन को मुनि चरणों मे स्थिर करके वैराग्य धारा ।। (वातावरण को घातिया कर्म नाशक बनाने के लिए वैराग्य धारण द्वारा अरहंत भक्ति) गुणस्थानोन्नति के साथ चार शुक्लध्यानों की प्राप्ति रत्नत्रयी जंबूद्वीप में चार अनुयोगी संघाचार्य की शरण में बनी। पुरुषार्थमय वैराग्य पूर्ण तपस्या ही इष्ट है। निकट भव्य ने सल्लेखना द्वारा रत्नत्रयी जंबूद्वीप में दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति हेतु तपस्या को महामत्स्य की तरह उत्कृष्ट संहनन से उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल मे अष्टकर्म नाश करके चतुराधक सल्लेरवी बन वैराग्य स्वीकारा। अदम्य पुरुषार्थ से त्रिगुप्ति धारण कर तपस्वी दो शुक्लध्यानों वाले अरहंत सिद्धमय जंबूद्वीप में आरंभी गृहस्थ की भूमिका से तीन धर्मध्यानों का तप आधार बना त्वरित होकर सप्त तत्त्वों का चिंतन करते हुए पंचमगति की साधना करते तपस्यारत आत्मस्थ हो लेते हैं । धर्ममय वातावरण में दो धर्मध्यानी आरंभी गृहस्थ भी तीन धर्म ध्यान प्राप्त करके सप्त तत्त्व चिंतन से पंचम गति की प्राप्ति हेतु आत्मस्थता लेते हैं । भवघट से तिरने वाले दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति करके जंबूद्वीप में अरहंत-सिद्ध आराधना से एक छत्रधारी राजा ने एकदेश स्वसंयम साधते हुए निकट भव्यता प्राप्त करके गुणस्थानोन्नति की और सल्लेखना हेतु चतुराधन (20) (21) किया। (24) पा । (26) जिनसिंहासन के शरणागत की सल्लेखना चतुराधन वाली दूसरे शुक्लध्यान तक रत्नत्रयी जंबूद्वीप में तपस्वी को मिलती है और उसे भी जिनलिंग दिला अदम्य पुरुषार्थ और वैराग्य दिलाती है । एक छत्रधारी राजा ने अंतरात्मा बन रत्नत्रयी तीन केवली पादमूल में भवचक्र से तरने के लिए रत्नत्रय साधा । सर्पसीढ़ी उठान गिरान ले तपस्वी ने सल्लेखना लेकर निकट भव्य पंचाचारी तपस्वी बन बारह भावनाएं जपते हुए वातावरण को भव्यत्व से गुणस्थानोन्नति में लगाया । निकट भव्य, सल्लेखी ऐलक था जिसने वैराग्य धारण कर चतुर्गति भ्रमण को अंत करने का उपक्रम किया । (अधूरा है) ढाईद्वीप के रत्नत्रयी जंबूद्वीप में पंचाचारी तपस्वी ने उत्तरोत्तर पुरुषार्थ द्वारा आत्मस्थता प्राप्त की । पुरुषार्थी अरहंत लीन सल्लेखी ने रत्नत्रयी जंबूद्वीप में निकट भव्यता से छत्रधारी राजा और आरंभी गृहस्थ होकर भी तीन धर्मध्यानी बनने का स्वसंयम साधा । रत्नत्रयी जंबूद्वीप में चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य निश्चय-व्यवहार धर्मी होते हैं । उपशम द्वारा पंचमगति साधक अपने वातावरण को उन्नत कर वैराग्यमय बनाते हैं । निकट भव्य बंधुओं ने एकसाथ वैराग्य धारा । 28) (31) 54 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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