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________________ श्री माधव स्वरूप वत्स के केटेलॉग का page No. Lxxxv पाठन (1) एक अदम्य पुरुषार्थी ने अष्ट कर्मजन्य चतुर्गति भ्रमण से मुक्ति हेतु दो धर्म ध्यानों वाली चतुर्थ गुणस्थानी की आरंभी गृहस्थ स्थिति से उठकर तीन धर्मध्यानों वाला पंचम गुणस्थानी बनकर संघाचार्य की शरण ले संघस्थ हो चतुराधन करते हुए, वैराग्य धारण किया और तीर्थकर के समवशरण में पहुंचकर उनके पादमूल में जा बैठा । एक तीन धर्मध्यानों वाले गृहस्थ के वातावरण में नवदेवता पूजन और रत्नत्रय से प्रेरित होकर गृहत्यागी ने दो धर्मध्यानी (चतुर्थ गुणस्थानी) स्थिति से ही सप्त तत्त्व चिंतन द्वारा पंचम गति की साधना हेतु वैराग्य धारण किया । दो रसिक जो अर्धचक्री थे और अष्ट विद्या में निपुण थे ने घातिया कर्मों के क्षयार्थ निश्चय-व्यवहारमय जिनधर्म के शरणागत होकर संघाचार्य के सम्मुख रत्नत्रयी पंचाचार पालते हुए भवचक्र पार करने लीन हुए । दूसरी प्रतिमा धारण करते हुए पुरुषार्थी ने स्वसंयम धारण किया और अदम्य पुरुषार्थ बढ़ाकर दो शुक्लध्यानों की प्राप्ति हेतु शाकाहार स्वीकार कर अष्टापद जैसे निकट भव्य प्राणी की तरह कभी हार न मानते हुए आरंभी गृहस्थ जीवन को त्याग दिया और पुनः आगे अदम्य पुरुषार्थ उन्नत किया। भवसागर से पार होने के ध्येय से चतुराधक छत्रधारी राजा ने ऐलक बनकर स्वसंयम धारा और तपस्वी बनकर रत्नत्रयी जंबूद्वीप में महामत्स्य की तरह वज्रवृषभनाराच संहनन के कारण उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालाओं में चारों गतियों से पार होने वाला अरहंत सिद्धमय वातावरण बनाया । भव से भयभीत हुए व्यक्ति रत्नत्रयी संघ में रहकर तीर्थकर पद और सल्लेखना का पुरुषार्थ करते हुए जिनशरणी बन गृहत्यागी बनते हैं । यह संसार ही अष्टकर्म जनित चतुर्गतियों का प्रतिफल है । पुरुषार्थी जीव ही अंतहीन भटकान से छुटकारा पाने के लिए सिद्ध प्रभु का सहारा लेकर अष्टकर्मों से छूटने सल्लेखना मरण द्वारा अदम्य पुरुषार्थ कर जाते हैं । सप्त तत्व चिंतन ही तपस्वियों के ध्यान का विषय बनता है । __ चतुर्गति के अष्टकर्मनाशन के लिए पंचमगति का लक्ष्य रखकर संघ की शरण में जाना ही भवचक्र से पार कराता है। (11) जंबूद्वीप में भवघट से तिरने की राह है । (12) 12 व्रतों का पालन 15 प्रमादों से बचाकर पंचमगति की साधना और वैराग्य में तीन धर्मध्यानी को भी रत्नत्रय की प्राप्ति कराता है । ऐसे चतुराधक सल्लेखी का वैराग्य और दृढ़ता चारों कषायों का त्याग कराकर ही आत्मस्थता लाती है । एकदेश स्वसंयमी आरंभी गृहस्थ ने तीन धर्म ध्यानों के साथ भी चतुराधन करते हुए रत्नत्रयी सल्लेखना से तीर्थकर प्रकृति बांध कर चर्तुमति छेदन हेतु वैराग्य लिया । (14) अपठ्य है । (15) लोकपूरण करते हुए केवली समुद्घात करने वाले वह पंचाचारी तपस्वी, प्रारंभ में एक आरंभी गृहस्थ थे जिन्होंने तीन 53 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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