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कुंजी प्रथम और द्वितीय है । कला के दूसरे चरण की कुंजी 3 धाराशिव द्वारपर और तीसरे चरण की कुंजी आदिजिन की कण्डलपुर स्थित आदि जिन' मुद्रा है । पालगंज की पार्श्वनाथ जिनमुद्रा महावीर कालीन होकर भी कुण्डलपुर बड़े बाबा की कलाछवि प्रतीत होती है ।इसके पैरों पर भी सैंधव पुरा लिपि अंकन है। प्राप्त सभी कुंजियां सैंधव लिपि के सारे रहस्य खोल देती हैं । इसके बाद तो सारे ही सैंधव पुरा लेखों को पढ़ा जाना अति सहज बन गया । इसलिए सभी पुरालेखों को एकत्रित करके उन्हें पढ़कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि सभी पुरा लिपि प्रेमी बंधु उसका लाभ ले सकें । लिपि को पढ़ना सहज होने से पाठक स्वयं भी इन संकेत लेखों को स्वयं अर्थ देकर इस दिशा में बहुत बड़ा सहयोग कर सकते हैं।
'सैंधव पुरालिपि में दिशाबोध" द्वारा सभी उपलब्ध पुरा अंकनों को कमबार पढ़ा गया है और उनकी महत्ता को खोला गया है जो एक उपयोगी सामग्री दे रहा है। इसे प्रथम तो भारतीय केटालॉगों की दृष्टि से पढ़ा गया पश्चात् पाकिस्तान तथा अन्य पुराअंकनों को भी समाहित करके पढ़ लिया गया है । साथ ही इस शोधकार्य में सम्मिलित उपयोग किए जा रहे सभी भारतीय प्रदेशों से प्राप्त पुरा संकेतों को भी सम्मिलित किया जा रहा है । मेरी अपनी दृष्टि में पड़े सभी पुरालेखों को भी पढ़ा गया है जो इस प्रकार हैं कि अभिलेखों के "आरंभ" और "अंत" को पहचानकर उनके पढ़े जाने की दिशा आत्मोन्नति हेतु मिले वही सही दिशा बोध कहलावेगा , सो ही यहाँ स्वीकार किया गया है । आशा है कि पाठकगण इससे लाभ प्राप्त कर सकेंगे। सीलों में शिवलिंग दर्शाने का जबरन प्रयास किया गया है जो संपूर्ण रूप से भ्रामक है । उस काल में भी बांट और तौल के साधन बहुत उत्तम थे। उन्हीं को येन केन प्रकारेण शिवलिंग बतलाने के प्रयास में भिन्न-भिन्न शिवलिंग दर्शाए गए हैं (सीलें 8 तथा 13) जो श्री वत्स की पूर्वाग्रह ग्रसित भूमिका दर्शाते हैं । एक कलेंडर (सील 14) भी दर्शाया गया है जो चंद्रमा की तिथियों पर आधारित वर्ष को बतलाने में महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति प्रस्तुत करता है । बाहरी घेरे में 29 दिन और 29 रातें हैं जो पखवारे दर्शाते हैं । भीतरी घेरे में 24 खंड हैं जो एक दिन को दर्शाते हैं । सबसे अंदर तीन प्रमुख ऋतुएं और उनके मध्य तीन उप ऋतुएँ हैं । यह कलेंडर घड़ी, तिथि और मौसम का ज्ञान उस काल में भी सहज दिलाता रहा है । ये एक प्रमाण है कि सैंधव युगीन मानव कितना सभ्य और प्रगतिवान तथा दूरदर्शी था । सील 21 गवासन मुद्रा में भक्ति दर्शाती है जबकि 13 और 14 उस काल के सामान्य कृषक/मानव को दर्शाती हैं । 17-25 सीलें अध्यात्म की प्रतीक हैं उन्हें भी आगे विवरण में प्रस्तुत किया गया है ।
सैंधव लिपि के अंतर्गत माने गए अनेक संकेताक्षर हमें सर्वेक्षण के दौरान कर्नाटक प्रदेश तथा तमिल नाडु की पर्वतीय शिलाओं/ चट्टानों पर देखने को मिले। मदुरै के आसपास के सभी शोचनीय स्थिति में। पुंडी का विशाल क्षेत्र झगड़े में उलझने से अतिकामकों की चपेट में आ गया है। चतुर्दिक त्रि आवर्ति वाली एक शायिका यहाँ भी दिखी। करंदई तथा तिरपनमूर में भी सामायिक का पुरा अंकन दिखा । सेलुकेई की आदिनाथ प्रतिमा अति विशेष है क्योंकि उसके पादपीठ पर दोनों ओर त्रिछत्र अंकित हैं। थिरुमल, मेरसित्तमूर, वीळकम, किलसात्तमंगलं, तिरुपनकुंडरं, सभी में पुरा कालीन शैलांकन हैं जो वहाँ पुराकाल में जिन श्रमणों का तप रत रहना दर्शाते हैं, घोर उपेक्षित पड़े हैं। श्रमण बेलगोला में भारतीय पुरातत्व व्दारा भी घोरतम उपेक्षित और खतरे में पुरा अंकित विशाल विस्तार पड़ा है। इसका एकमात्र कारण उसका अपठ,य होना है।
गुजरात,, कच्छ में वह पुरातत्व गिरनार की ऊँची श्रृंगों और श्रृंगपथ के साथ साथ जूनागढ़ के आसपास के क्षेत्रीय विस्तार में प्रचुर मात्रा में था किंतु प्रादेशिक पुरातत्व विभाग ने अज्ञानतावश उसे क्षुद्र स्वार्थवश, आराजक तत्वों को पंडों के रूप में वहाँ अनियंत्रित बसाकर बुरी तरह नष्ट कराया है। महाराष्ट्र में भी लगभग यही स्थिति प्रादेशिक विभागों व्दारा बिहार और झारखंड जैसी है। उत्रं प्रदेश, मध्यप्रदेश के ग्वालियर, विदिशा, ग्यारसपुर, चंदेरी की ही भांति उपेक्षित पड़ा है।
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