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7- संसार से ऊपर उठने और वैराग्य धारण करने की प्रेरणादायक यह सैंधव लिपि ही है जिसे किसी भी "मूल्य" से नहीं मात्र आचरण तथा पुरुषार्थ से ही संयम द्वारा अपनाया जा सकता है ।
8 – इसके मूल सिद्धांतों को अनुभवन में न लाने के कारण आगे चलकर अज्ञान वश विरोधी बनकर अनेक तथाकथि
धर्मधारी बाहर निकल गए और जैनत्व के विरोध में उठ खड़े हुए जिसने धर्म और पुरातत्व की भारी क्षति हुई है। 9. सबसे प्राचीन लिपि होने के कारण इसके अनेक अक्षर ब्राह्मी में तथा और आगे चलकर उत्तर कालीन प्राकृत, संस्कृत, तथा वर्तमान में प्रचलित देवनागरी आदि ने भी ले लिए है जिन्हें सावधानी पूर्वक पढ़ा जाना आवश्यक होगा ।
सैंधव भाषा और लिपि को पकड़ने समझने के जितने प्रयास हुए हैं वे सब इसी ध्येय से हुए हैं कि वर्तमान भाषाओं से सैंधव भाषा का तारतम्य बिठाया जा सके। जबकि सैंधव भाषा लौकिक न होकर अध्यात्मिक भाषा रही है और वर्तमान में भी प्रचलित है । अधिकांश विद्वान सैंधव भाषा को द्रविड़ भाषाओं से जोड़ते हैं जबकि सैंधव भाषा और लिपि प्राकृत आधारित होने से सभी क्षेत्रों में अपना प्रभाव दर्शाती है। श्री एस्को पारपोला ने बहुत गंभीर अध्ययन करके लिपियों के विषय में उनके स्वयं के अभिमत दिए हैं कि सैंधव भाषा को "इंडोआर्यन भाषा ने हटाया अर्थात जहाँ सैंधव बोली जाती थी वहाँ कालान्तर में संस्कृत आ गई जिससे पुनः बदलते हुए कदाचित् हिन्दी, बंगाली और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं ने स्थान पा लिया। वैसा होना तो स्वाभाविक ही था।
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डॉ. ब्युलर ने भारतीय लिपि का काल ई. पू. 1000 से भी अधिक मानते हुए ब्राह्मी के पक्ष में नवीन शिलालेखों से संदर्भित विचार दिए हैं । मेगस्थनीज से लेकर भारतीय और विदेशी विद्वानों की लंबी सूची इसी ऊहापोह में हमें सहज ही उपलब्ध हो जाती है। ब्राह्मी के उद्भव सम्बंधित अनेक मान्यताएं हैं। अष्टाध्यायी में लिपियों का प्राचीनतम उल्लेख यवनानी को दर्शाता है । जैन सूत्रों में बंभी (ब्राह्मी), जवनालि (ग्रीक) दोसपुरिम, खरोत्थि, पुक्खरसरिया, भोगवैगा, पहाराइय उयअंतरिक्खिया, अक्खरपिट्ठिया, तेवनैया, गिन्हैया, अंकलिपि, गंधव्वलिपि, आंदसलिपि, माहेसरी, दामिली (तमिल) और पोलिन्दी का उल्लेख है । बौद्ध ग्रंथ ललित विस्तर में ब्राह्मी, खरोष्ठी पुष्करसारि, अंगलिपि, बंगलिपि, मगधलिपि, मंगल्यलिपि, मनुष्य लिपि, अंगुलिय लिपि, शकारि लिपि ब्रह्मवल्लि लिपि द्रविड़ लिपि, कनारि, दक्षिण, उग्र, संख्या, अनुलोम, उर्ध्वधनुर्लिपि, दरद, खंस्य, चीनी, हूण, पुष्प, मध्यक्षर, विस्तार, देव, नाग, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, महोरग, असुर, गरुड़, मृगचक, चक्र, वायुमरू, भौमदेव, अंतरिक्ष, उत्तर, कुरुद्वीप, उपर गौड़, पूर्वविदेह, उत्क्षेप, विक्षेप, प्रक्षेप, सागर, वज्र, लेख प्रतिलेख, अनुद्भुत, शास्त्रावर्त, गणावर्त उत्क्षेपावर्त, विक्षेपावर्त, पादलिखित द्विरुत्तरपदसन्धि लिखित, दशोत्तर पद सन्धि लिखित अध्याहारिणी, सर्वरुत्संग्रहणि, सर्वभुवरुद्ग्रहणि आदि लिपियों का वर्णन है जिनमें से ब्रह्मा ने बाएं से दाहिने, क्यालु ने दाहिने से बाऐं और त्सम्-कि लिपियाँ ऊपर से नीचे की ओर लिखी जाने वाली ऐसी तीन दैवी शक्तियों द्वारा दी गई लिपियाँ बौद्ध साहित्य में मानी गई हैं ।
सिन्धु घाटी की लिपि की उत्पत्ति संबंधी भिन्न-भिन्न मत हैं। सर जान् मार्शल उसे L-R तथा द्रविड़ मूल की मानते है । पांचवी कुंजी एक अति प्राचीन सबसे बड़ी दिगंबर जिन पद्मासित प्रतिमा है जिसे लक्षणों से "आदिनाथ" पहचाना गया है । यह अतिशयकारी प्रतिमा कुण्डलपुर नामक सिद्धक्षेत्र पर दमोह के समीप एक पाषाण पर उभरी दिखाई देती है और तृतीय कला काल की रचना प्रतीत होती है । इसके पद्मासित पैरों पर सैंधव लिपि के 3 और 10 अक्षर दृष्ट हैं जो इसे सिंधु घाटी कालीन सभ्यता के सम कालीन प्राचीन दर्शाते हैं । कला के प्रथम काल / चरण की हमारे सामने
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