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पड़ जाते हैं विशेष कर तूतेनखामेन के मंदिर में चित्रांकित अक्षरों के रूप में रत्नत्रयी राजा का पंचम गति की भावना भाता दृश्य, राजा और रानी की उन बैठी मुद्राओं का परिचय "जिनप्रभावी और उन्हें जिन भक्तिमय दर्शाता है ।
पुरातत्त्व की दृष्टि से उस सभ्यता के विषय में मानव के सामाजिक जीवन संबंधी भी थोड़ी बहुत जानकारी पुरा वस्तुओं से अवश्य मिलती है । किंतु जो लिपि अंकन के रूप में सीलों, सिक्कों तथा अन्य सामग्री पर दिखाई देती है वह उस काल में अध्यात्म की अभिरुचि को ही दर्शाती है । उत्तरकाल में इसके कुछ संकेताक्षर ब्राह्मी, ग्रीक तथा लैटिन आदि लिपियों ने ले लिए हैं । इस लिपि को देखकर यह निष्कर्ष निकालना भी उचित नहीं होगा कि उस समय अथवा इसके उद्भव से पूर्व मानव समाज में दैनिक जीवन संबंधी कोई भाषा अथवा लिपि नहीं थे । प्राप्त सीलों में ही जब "ऊँ" के तीन स्वरूप मिल रहे हैं तब इतना तो संकेत मिल ही जाता है कि तब "देवनागरी" का भी किसी न किसी रूप में प्रचलन अवश्य था । सिर से लटकते ॐ का प्रयोग तो मूल धवला ग्रंथ के साथ-साथ अनेक पाण्डुलिपियों तथा जिनबिम्बों की प्रशस्तियों, पादपीठ अभिलेखों, प्राचीन शिलालेखों आदि मे दिखलाई पड़ता ही है अन्य दो रूप तथा सिंधु घाटी लिपि की विशेषता दिखाई देते हैं। विशेष बात तो ध्यान देने योग्य यह है कि जिस सनातन परंपरा की झलक हमें सिंधु घाटी के अवशेषों (सील. मुहरों ) आदि में देखने को अंकित मिलती है वही परंपरा आज भी दिगंबर जिन धर्मी साधुओं की दैनिक चर्या में जीवंत है । मूल जैन सिद्धांत ग्रंथ भी उसी की पुष्टि करते हैं । उसके कुछ अक्षरों का जिन मुद्राओं के साथ होना भी इसी बात का संकेत है कि वह "जिनानुयायियों की भाषा थी । "कुंजी" के रूप में वह विश्व को संकेत देती है कि उसका पाठन "जैनआगम के आधार पर ही होना चाहिए । व्यर्थ वैदिक, गायत्री माहेश्वर सूत्र तथा अनुष्टुप छंदों को खींचतान कर बैठाने का पूर्वाग्रह तो त्याग ही दिया जाना चाहिए । श्री वत्स मैके और मार्शल के केटालॉगों से प्राप्त लिपि विषयों तथा अन्य प्रकाशित सैंधव सामग्री पर अंकित लिपि अभिलेखों को जैन आगम के आधार पर पढ़ने पर जो तथ्य सामने आते हैं उन्हें "सैंधव पुरालिपि में दिशा बोध' शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किया जा रहा है क्योंकि वह आत्मबोध क है। प्रयत्न यही किया गया है कि अधिक से अधिक अभिलेखों को पढ़ लिया जाये किंतु संभवतः यदि कुछ अभिलेख हमारी दृष्टि से छूट गए हों तो पाठकगणों से विनती है कि उन्हें हमारे ध्यान में अवश्य लाया जावे । हम उनके आभारी होंगे ।
पाठकों की सुविधा के लिए लिपिकोष की संक्षिप्त सूची भी यहाँ अलग से प्रस्तुत की गई है ताकि वे पुरालिपिकों की आध्यात्मिक अनुभूति की झलक पा सकें । यहाँ आगे कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष जो हमारे ज्ञान में पुरालिपि पढ़ने पर आए थे उन्हें दर्शाना भी उचित समझा गया है, कि :
1 यह पुरालिपि संपूर्णता में जैन श्रमण परिप्रेक्ष्य में पढ़ी और लिखी गई है जहाँ तनिक भी खींचतान नहीं की गई है। मात्र अक्षरों के अर्थ ही क्रमवार संजोए गए हैं ।
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- सैंधव लिपि के अक्षर (स्वर - व्यंजन नहीं) रहस्य उद्घाटित करने वाले शब्द हैं। संकेताक्षर, चित्राक्षर और संयुक्ताक्षर जैसे 3- उन शब्दों का मूलाधार उनकी भारतवर्ष में बिखरी / प्रस्थित विशाल मूलाकृतियां हैं अथवा रही हैं ।
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• सैंधव सीलों / मुहरों में उस काल तक के 21 तीर्थकरों के लांछनों की उपस्थिति दिखती है भले ही विद्वानों के मतानुसार तीर्थकरों के लांछन की प्रथा उत्तरकालीन बतलाई जाती है।
5- कुछ सीलों में प्रथमानुयोग तथा अधिकांशतः द्रव्यानुयोग का दर्शन होता है।
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• इस पुरालिपि में आत्मा का रहस्य और आत्मोत्थान की राहें "बोधगम्य" हैं ।
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