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पुरालिपि का विस्तार
मूल में तो सिंधु घाटी की पुरालिपि का विस्तार भारतवर्ष में ही रामायण और महाभारत के मध्यकाल में उभरा प्रतीत होता है किंतु वर्षों की गहराई में इसका अस्तित्त्व डायनासर काल से भी पूर्व काल में चला जाता है जो चार सीलें दर्शाती हैं। लावा की चट्टानी पर्तों के अंदर से झांकता इसका अस्तित्त्व भारत के दक्षिण पठार की पिछली लावा उफानों से भी पूर्व जा बैठता है । उस रामायण-महाभारत की प्रथम चर्चा तो जैनाधारी रही है और प्रभावी भी रही किंतु जैन विरोधी आंदोलन के पश्चात् उसे परिवर्तित (जैनों) हिंदुओं ने अपने अनुकूल परिवर्तन करके भी अपनाए रखा । इस प्रकार जैनों और ब्राह्मणों की रामायण और महाभारत तथा गीता अलग-अलग हो गए । आश्चर्य है कि इनका कोई भी "लौकिक पात्र" सैंधव लिपि में नहीं दीखता भले ही अध्यात्म के रस में पगी वही लिपि रामायण युग के बंधु तपस्वियों, कुलभूषण देशभूषण की पूरी कथा दिखलाती है।
सिंधु पुरालिपि को किसी भी दिशा में पढ़े जाने पर भी उस अक्षर-कम में अर्थ क्रम की विशेषता बनी रहती है । स्वस्तिक एक ऐसा संकेताक्षर है जो सिंधु घाटी लिपि के साथ-साथ प्राचीन भारतवर्ष के प्रत्येक भूभाग पर अपनी उपस्थिति दर्शाता है । मध्य विश्व के देशों के साथ-साथ वह इटली के इवूस्कन स्वर्ण पत्रों में भी देखा जाता है जहाँ त्रिशूल, गुणस्थान, जंबूद्वीप अंकन के साथ-साथ धनुष तथा काल अंकन भी स्पष्ट दिखलाई पड़ता है । इस्कन सभ्यता "इवूरिया" की प्राचीन (ईसापूर्व) "सिकुली" तथा "अंबरी" (Siculi & Umbri) जातियों की विशेषता रही है जिसे विद्वान जार्ज डेनिस के अनुसार 1000 ई. पू. (B.C.) से भी अधिक प्राचीन माना जा सकता है । डेनिस के मतानुसार इतूरिया के मूल "इवूस्कनों" को (जो बद्दू न होकर समूहों में बसते थे) ग्रीक की थेसाली (Thessali) की पेल्सागी (Pelsagi) सभ्यता वालों ने हमलों से नष्ट करके स्वयं को स्थापित किया था। वहाँ से इवूरियनों को भगाकर उन्होंने वहाँ ऊंची-ऊंची दीवारों वाले निर्माण किए किंतु उन्हें भी ग्रीक की तिरहेनी/तिरसेनी (Tyrseni) जाति समूहों ने लगभग 1044 ई. पू. (B.C.) में हमला कर नष्ट किया और स्वयं को स्थापित कर लिया था । वे स्वयं को "रसेना" पुकारते थे तथा रोमन उन्हें "इतस्की" पुकारते हैं । इटली की उस प्राचीन संस्कृति में सैंधव लिपि के अनेक संकेताक्षर स्पष्ट दिखाई देते हैं । उस "मूल" सभ्यता के विषय में "प्लेटो" का अभिमत था कि वह (850,000) साढ़े आठ लाख वर्ष पुरानी सभ्यता थी जिसे सम्पूर्ण विश्व ने लगभग भुला दिया है । "प्लेटो की इसे "सनक" कहकर हंसी में उड़ा दिया गया किंतु कुछ प्रमाण तो उनकी उस बात के संबंध में अवश्य मिलते हैं । उन इवूरियों की प्राचीन बस्तियों के खंडहर अब भी बीच अमेलिया और बसेरा नगरों में खड़े मिलते हैं । कुछ गुफाऐं भी मिलती हैं ।
__ भले ही पेलस्गियन (Pelasgian) जैसी अनेकों सभ्यताएं काल के गाल में समा चुकी है और उनकी लिपियों का रहस्य भी, किंतु उन पर खोज करना अत्यंत रोचक विषय है । विशेषकर तब, जब हमें उस पुरालिपि को पढ़ने का आधार भी मिल चुका है । काल की अनादि और अनंतता में मनुष्य के अस्तित्त्व के प्रमाण हमें मनुष्य के गहराई से जुड़े अस्तित्त्व वाले, उस भूले जा चुके काल में ले जाकर हमें हमारी "जड़ों" से परिचित कराते हैं कि जैन मान्यता के उत्सर्पिणी/अवसर्पिणी के काल प्रभावों में न जाने कितनी ही सभ्यताऐं उठी और काल कवलित हो चुकी हैं । किंतु भारत की उस मूल संस्कृति को आज भी उसी रूप में जीवंत देख इसे "शाश्वत संस्कृति" बतलाने का श्रेय इसी "सिंधु घाटी लिपि' को जाता है । साथ ही यह भी दिखाई देने लगता है कि उस संस्कृति का प्रभाव कितना विश्वव्यापी था । इटली से लेकर ईजिप्त तक प्रभावी "गेटीज कूरो" आज भी उतने ही गौरव का विषय बना हुआ है । ईजिप्त की 'नील कछारी सभ्यता' में भी अनेक अक्षर इसी सिंधु लिपि के सदृश्य दिखाई
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