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________________ (57) सल्लेखी के ध्यान में अरहंत के तीन शुक्लध्यान। (58) अरहत की महामत्स्य जैसी संहनन दृढ़ता। 2 = &+l+॥ RI+ और = all +8 (59) जिनसिंहासन पर अवस्थित पंचपरमेष्ठी । (60) जिनसिंहासन के सारे ही जिनलिंगी गुणस्थानोन्नति रत। (61) पंचमगति वाले का चतुराधन। (62) तीर्थंकर प्रकृति पुण्यार्थी द्वारा सल्लेखना। == } + MM+ (1 (63) युगल श्रृंगों पर पुरुषार्थी द्वारा समाधिमरण और पंचमगति की साधना। (64) ढ़ाईद्वीप में जीवन को दोहरी संकल्पित सीमाओं में बांधना। (65) भवचक्र से पार उतारता रत्नत्रयी वैय्यावृत्तिक वातावरण । || WII-W•|| CU8 7=Y+r+( (66) रत्नत्रय हेतु निश्चय व्यवहार धर्म सहित पुरुषार्थ । (67) कर्मफल चेतना को शांति से सहने से गुणस्थानोन्नति। (68) रत्नत्रय का केवली के शीर्ष पर धारण और तपस्वी का पंचाचार। =Y•b+8 (69) महामत्स्य जैसी उत्तम संहनन वाली तपश्चर्या । (70) चतुर्गति भ्रमण का पंचमगति में बदलना। = *++ (71) अष्ट कर्म जन्य चतुर्गति भ्रमण को रत्नत्रय से नाशना। y=X+Y XM+x (72) शिखरतीर्थ श्रृंगों पर जाकर चतुर्गति भ्रमण नाशन। (73) सल्लेखी का रत्नत्रय धारण सहित चतुराधन और पंचमगति साधना का पुरुषार्थ । (74) कैवल्य के लिए आवश्यक दो धर्मध्यानों से चौथे शुक्लध्यान तक का उद्यम। 46 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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