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(31) तपस्वी का सल्लेखना/ संथारा धारण।
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(32) छत्री का तपस्वी बनकर स्वसंयम धारण।
(33) तपस्वी का तीर्थकर प्रकृति प्राप्त करने हेतु पुरुषार्थ द्वारा आत्मस्थता धारना ।
Co=2+ )+7+ ||QR = 2+II-2
(34) तपस्वी का दूसरे शुक्लध्यान के केवलत्व हेतु उद्यम ।
(35) छत्रधारी (छत्री) का चारों कषायों का त्याग।
(36) सम्यक्त्वी का सल्लेखना पुरुषार्थ सहित तीर्थकर प्रकृति बांधकर निकट भव्यत्व (37) सचेलक तपस्वी का आत्मस्थ तपस्वी बनकर निकटभव्य होना।
(38) उपशमी तपस्वी का निश्चय-व्यवहार धर्म द्वारा पंचमगति का लक्ष्य ।
(39) सचेलक का त्रिगुप्ति धारण। (40) तपस्वी की चतुर्गति भ्रमण नाशन और गुणस्थानोन्नति। (41) आत्मस्थ तपस्वी द्वारा निकट भव्यत्व पाना। (42) सल्लेखी का तीर्थकर प्रकृति प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ। (43) चतुर्गति भ्रमण को गुणस्थानोन्नति द्वारा रोकना। (44) शिखर श्रृंगों पर चतुर्गति भ्रमण को तप से रोकना। (45) चतुर्गति के भवभ्रमण को पंचमगति द्वारा रोकना।
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(46) भवभ्रमण को रत्नत्रय द्वारा पंचमगति से रोकना।
(47) भव/जीवन को मन, वचन, काय से स्थिर बनाकर जीना। (48) निश्चय व्यवहार धर्ममय सल्लेखना। (49) निश्चय व्यवहार धर्म द्वारा भव में चारों कषायों का त्याग। (50) पंचमगति में जीव का उर्ध्वगामी प्रवेश/मोक्ष ।
(51) स्वसंयमी की चार धर्म आराधना।
(52) केवली के शीर्ष/अंतर्भूत पाँचों "जिन' परमेष्ठी ।
१-Q+ II KK K+Y+llll
(53) निकटभव्य का अरहंत सिद्धयुक्त भावन और चतुराधन।
(54) काल से प्रभावित अन्य पाँच द्रव्य ।
(55) निकट भव्यत्व को छोटा बनाकर केन्द्र की ओर मोड़ना।
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(56) रत्नत्रयी पंचाचार।
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