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इन संकेताक्षरों को रेवस विधि से जैन परिप्रेक्ष्य में कई वर्षों पूर्व पढ़ा गया था । प्राचीन साहित्यिक प्रमाणों के होते हुए भी लगभग छह वर्ष बीत गए पुरातात्त्विक प्रमाण खोजते। जैन संदर्भित प्रमाणों को कान्फ्रेंसों और लेखों की प्रस्तुति के बाद भी उपेक्षित देख प्रथम पुराप्रमाण उस्मानाबाद गुफाओं में और दूसरा देवगढ़ के एक प्राचीन मानस्तंभ पर अंकित दिखा। इनसे प्रोत्साहन पाकर लगभग सारे ही पुरा संदर्भित हिंदू, बौध्द, जैन, मंदिरों, मठों, तीर्थक्षेत्रों, गुफाओं, गम्य पहाड़ों, धामों, घाटों, खण्डहरों, किलों, उजाड़ों, पुरा उत्खननों, प्राचीन मस्जिदों में खोजते खोजते अचानक श्रमण बेलगोला की आदि शिला पर अंकित पुरा जिन
और वे 4-5 सैंधवाक्षर दिव्य कुंजी के रूप में दिख गए। उस क्षेत्र के व्यापक विस्तार पर पुरा अंकन का खजाना देखते देखते एकाएक केलेंडर में बड़े बाबा का चित्र महाकुंजी के रूप में सामने आ गया। अब कोई संशय बाकी न रहा अतः प्राचीन जिन बिंबों की खोज की, और 10 ही नहीं हमारे सर्वेक्षण का पुण्य पाक अब तक 12 पुरालिपि अंकित जिनबिंबों में से 10 यहाँ प्रस्तुत हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि यह लिपि पार्श्वनाथ काल तक भी कुछ अंशों में प्रचलित रही है।
उसके बाद की परिस्थितियाँ इसके न केवल इसलिए प्रतिकूल गईं प्रतीत होती हैं कि यह श्रमणों तपस्वियों की लिपि रही बल्कि जिनधर्म की भी घोर विरोधी बनी दिखती हैं। धर्म के नाम पर वैदिक हिंसा को जन्म देने वाला कदाचित यही काल रहा है जब धर्मक्रांति के नाम पर नए वैदिक धर्म की न केवल स्थापना हुई बल्कि ब्राह्मणवाद ने प्रबल रूप धारण करते हुए ईश्वर के नए सृष्टिकर्ता रूप को भी स्थापित किया । ऋषभ भक्तों को बहला फुसलाकर अथवा भय दिखलाकर नए तथाकथित हिन्दू धर्म की नींव डाली एवं ब्रह्मा विष्णु महेश के त्रिमुख रूप और अवतारवाद का महत्त्व दर्शाते हुए शक्ति मत का प्रचार किया और शैव धर्म का भी। ऋषभ के ऋग्वैदिक महत्त्व को पहचान कर उन्हें कभी आठवां तो कभी चौदहवां अवतार दिखलाते हुए जिनभक्तों और श्रमणों पर उग्र हिंसक दबाव बनाकर उन्हें पीड़ित कर उनका धर्म परिवर्तन कराया । स्वयं को 'आर्य' घोषित करते हुए मूल धर्मियों को 'अनार्य' और 'द्रविड' कहकर उन्हें 'हीन' बतलाते हुए स्वयं की 'प्रभुता दिखलाकर उनका दमन किया। उन्हें 'अनीश्वरवादी' और 'वेदविरोधी' बतलाकर उनके विशेष तीर्थ क्षेत्रों को हथियाकर उनपर अपने मठ स्थापित कर लिए और वीतरागी जिन बिंबों को वस्त्रों, आभूषणों से ढांककर उन्हें कहीं शंकर तो कहीं राम लखन जानकी अथवा कहीं कृष्ण बलराम और कहीं घांघरा फरिया पहनाकर देवी के रूप में पूजना प्रारंभ कर दिया । आज भी वहाँ दर्शन पाने के लिए तथाकथित हिंदुओं को छूट है किंतु अभिषेक से पहले दर्शनार्थी जिनघर्मियों से मोटी राशि टिकिट के रूप में पंडे वसूलते हैं। हमारे हिंदू प्रधान भारत का अब यही स्वरूप है। समन्वयवादी ऐतिहासिक काल में भी जिन मंदिर निर्माण पर कड़ी रोक थी। मात्र तभी मंदिर बनाया जा सकता था जब उसमें हिंदू देवी देवताओं को भी स्थान दिया जाता। उस काल के अनेक मंदिरों में बाहर अथवा अंदर, किंतु गर्भ गृह के बाहर हिंदु देवी देवता, गणेश, राम सीता, हनुमान, कृष्ण बलराम आदि देखे जाते हैं जिनके आधार पर जैनियों को हिंदू घोषित किए जाने का षड़यंत्र प्रबल हो रहा है। अहिंसक जिनघर्मियों ने प्रत्येक कठिन परिस्थिति में भी अपने धर्म प्रभावी धैर्य का परिचय दिया है।
इन्हें प्रस्तुत करने का एक उद्देश्य यह भी है कि पाठकगण संभावित सर्वेक्षण व्दारा जानकारी को बढ़ाकर अन्य जैनेतर साहित्यों से भी सारगर्भित पुरा प्रमाण तुलनात्मक अध्ययन हेतु सामने लाकर ठोस निष्कर्ष निकालने में सहयोग कर सकें। तभी जाकर प्राचीन उस भारतवर्ष एवं समीपवर्ती देशों के उत्तरकालीन धर्मों पर उस मूल संस्कृति का कितने कितने अंशों में कैसा प्रभाव पड़ा, उसे भी अध्ययन में लिया जा सकेगा।
इस दिशा में किए गए सारे प्रयास हमें हमारे सही इतिहास को स्थापित कराने में सहायक सिध्द होंगे।
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