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103 पंचाचारी ।
104. विद्याधर ।
105. सम्यकत्वधारी ।
106. चतुर्विध संघाचार्य ।
* बाहिर और रहस्
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107. चार अनुयोगी संघाचार्य । ॐ ॐ
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108. भक्त ।
109. वृत्ति परिसंख्यानी ।
110. तद्भवी मोक्ष |
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इनसे बने व्यापक अर्थी संयुक्ताक्षर तथा चित्राक्षरों में अनेक अक्षर पशु पक्षी तथा यक्ष, देवों के द्योतक हैं जिनके विशेष अर्थ भी हैं। कुछ ज्यामिती की आकृतियाँ अपने विशेष अर्थ खोलती हैं जिन्हें जे. एम. केनोअर ने समीपवर्ती देशों के पर्वतों पर अंकित खोज निकाला है । उनके संभावित अर्थ यहाँ अलग से दर्शाए गए हैं। यथा
वूम्ब स्केच / भूवलय चक की अभिव्यक्ति है। अन्य अंकन अर्थात विधान चित्र. चतुर्दिक त्रिआवर्ति. दिगंबरत्व. गुणस्थानोन्नति आदि जिनधर्मी संकेताक्षर हैं। अनेक सिरों वाला पशु. अर्ध पशु. ( यक्ष). देव, शेर / शार्दूल, यूनिकार्न. सांड़ हाथी, भैंसा, गेंड़ा. बंदर. सर्प घोड़ा. चंद्र. कछुवा हरिण मछली. मगर पक्षी आदि तीर्थकर लांछन रूप हैं।
चतुरंगी लेश्या बोधक जिनध्वजा, जिन कलश आदि सारे ही जिन धर्म प्रभावी अंकन है।
बाहुबली की सील में भरत धराशायी, मैमथ / रस्सों से बंधा एक पालतू हाथी उस काल के मनुष्य के साहस और सामर्थ्य को दिखलाता है जब डायनासर सा सरीसृप भी लिपि अंकन में एक सल्लेखी की अभिव्यक्ति हेतु उपयोग किया गया है मेंढक, कुत्ता, खरगोश, गधा, गिलहरी प्रथमानुयोगी कथा पात्र है। मुर्गा, बतख, कबूतर चिड़िया जल कुक्कुट ऊँट आदि का समावेश उस काल में प्रचलित कथाओं की झलक देता है। तिल्लोय पण्णत्ति की कुछ गाथाऐं इनकी चर्चा करती हैं। यथा कल्पकाल के सारे ही प्राणी शाकाहारी होते हैं जो अब काल परिवर्तन से मनुष्य के प्रभाव में मांसाहारी हो गए हैं :
- वग्घादी भूमिचरा, वायस पहुदी य खेयरा तिरिया, मंसाहारेण विणा, भुंजंते सुरतरूण महुरफलं ।। ति प 4/396 - हरिणादि तणचरा भोगमहीए तणाणि दिव्वाणि भुंजंति ।। ति प 4/367
-गो केसरिं करि मयरा सूवर सारंग रोज्झ महिस वया, वाणर गवय तरच्छा वग्घ सिगालच्छ भल्ला य । कुक्कुड कोइल कीरा पारावद, सायहंस, कारंडा, बक, कोक, कोंच, किंजक, पहुदीयो होंति अण्णेवि ।। ति, पं, 4/393-394
-जह मणुवाणं भोगा, तह तिरियाणं हवंति एदाणं णिय णिय जो त्तेणं, फल कंद तणं कुरादीणिं ।। ति, प, 4/395
सैंधव लिपि के संदेशों की झलक इस प्रकार परंपरागत वर्तमान जैनागमिक साहित्य में भी अपनी उपस्थिति दर्शाती है। जैसे बतलाया जा चुका है इन संकेताक्षरों के अर्थ को लिपि अंकन में दाहिने से बाऐं अथवा बाएं से दाएं जोड़ते हुए पढ़ने से अत्यंत उपयोगी जैन अध्यात्मिक संदेश सहज ही प्राप्त हो जाते हैं; किसी भी प्रकार की उसमें खीचतान नहीं करना पड़ती यही इस लिपि को समझने की सार्थकता सिध्द करता है ।
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