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"मणु यणा ९१ इंद सुर धरिय छत्ततया, पंच कल्लाण " साक्खावली पत्तया । दंसणं णाण झाणं अणंतं बलं , ते जिणा )(दिंतु अम्हं वरं मंगलं ।।1।।
जेहिं झाणग्गि॥ बाणेहिं । अइदड्वयं जम्म जर मरण णयरत्तयं ६ दड्वयं । जेहिं पत्तं सिवं 4 सासयं ठाणयं . ते महं दिंतु सिद्धा 0 वरं गाणयं ।। 2 ।। पंच आचार* पंचग्गिन संसाहया, बार संगाइ 3m सुअजलहि अवगाहया मोक्खलच्छी - महंती महंते ग. सया, सूरिणो * दिंतु मोक्खं XM गयासंगया ।।3।।
घोर संसार * भीमाण वीकाणणे तिक्ख वियरालणह पाव पंचाणणे . Xणह)( मग्गाण जीवाण पहदेसिया / वंदिमो ते उवज्झाए ई अम्हे सया ।।4।। उग्ग तव * चरण करणेहिं झींणं गया धम्म वर || झाण सुक्केक्क सुझाणं गया णिब्भरं तव सिरीए समा लिंगया साहवो ते महं मोक्ख । पह मग्गया ।। 5 ।।
एण थोत्तेण जो F पंचगुरु वंदए गुरुय संसार घणवेल्लि सो छिदए उस शैलांकित पुरालेख को देखकर ऐसा आभास हुआ कि श्रवणबेलगोला में तो सदैव से ही साधु संघ रहते रहे हैं । उनके संघों को भी इन्हीं संकेतों में से उनके योग्य लिपि चिन्ह पहचान स्वरूप दिए गए होंगे। आरंभ में तो उन संघों को बहुत असुविधा, आवास संबंधी भी होती रही होगी किंतु धर्म पथ पर लगने से वे सभी व्यवस्थित रहे। नवागन्तुक साधु उन्हीं के अनुगामी होने से ही आज्ञा पाकर सम्मिलित होते रहे होंगे। ये संकेताक्षर नहीं उन्हीं श्रमणों के लिए सूत्रात्मक उपदेश थे जो स्मृति हेतु यात्री गण भी अपने साथ ले जाते रहे होंगे । हड़प्पा मोहन्जोदड़ो एवं अन्य स्थानों पर वही अवशेष रूप अब मिले हैं । यही वह अनमोल संस्कृति थी जो तब के विशाल भारतवर्ष की पावन भूमि पर सर्वत्र स्पंदित थी ।
. पुरालिपि के ये छोटे-छोटे सूत्रात्मक संदेश बड़े ही मार्मिक, सटीक और जीवन को बदलने वाले हैं । मात्र एक सूत्र ही जीवन भर याद रखने से जीवन तार देगा । ये लौकिकता के नहीं मात्र जैन सिद्धांत, आगम और अध्यात्म को दर्शाते हैं । इनकी संख्या इतनी अधिक होने से पाठकों को लगता होगा कि ये सब एक से संदेश होने के कारण मन उबाते होंगे। हाँ संसार प्रेमियों को ये मन उबाऊ लगेंगे किन्तु जैन धर्म के मर्मज्ञों को ये अत्यंत रुचिकर लगेंगे । सबको भी नहीं किंतु भव्य पाठक इन्हें पढ़कर इतना तो समझ ही लेंगे कि अनादि काल के अनुभव रूपी समुद्र से गोते खाकर ये मोती हमारे पूर्चाचार्यों ने लाकर हम तक पहुंचाए हैं। ये भव्यों के तथा "एकदेश" स्वसंयमी भव्यों के लिए ही हैं । वे भव्य हर काल में गिनेचुने ही होते हैं । जिस प्रकार हमारी एक अरब जनसंख्या में दूढ़कर निकालें तो हजार ही वीतरागी तपस्वी होंगे? अथवा पूरे संसार की जनसंख्या में कितने मोक्षमार्गी होंगे? इसी से हम कल्पना कर सकते हैं कि हर काल में वो एक सूत्र ही बहुत प्रभावी, पूज्य और पवित्र रहा होगा । प्रत्येक, एक-एक सूत्र सामने रख कर ही सम्यकदर्शन प्राप्त कराने को सक्षम रहा है । इसे पढ़ने, मनन करने और राह पकड़ने हेतु धर्म सेवियों के हाथों में एक तुच्छ कड़ी बनकर निमित्त होने का सौभाग्य पाकर इसे आगे की पीढ़ी को सौंपती हूँ क्योंकि मैं तो अभी प्रारंभिक स्थिति में ही हूँ जहाँ मेरे कितने कदम सही पड़े और कितने लड़खड़ाए मैं स्वयं भी नहीं जानती । इतिहास तो सदा ही अपावन रहा है अन्यथा हम यहां पड़े ना रहते, सिध्द होते ।
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