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________________ पुराविदों और इतिहासकारों ने अध्ययन हेतु मानव सभ्यता के काल का विभाजन निम्नलिखित रूपरेखा में किया है। पेलियोलिथिक काल आरंभिक पाषाण औजार युग गहन पेलियोलिथिक काल मध्य पेलियोलिथिक काल उपर पेलियोलिथिक काल ऐपी / सतही पेलियोलिथिक काल मीसोलिथिक बदलाव काल सैंधव युग आरंभिक कृषि काल (नियोलिथिक / चालकोलिथिक) क्षेत्रीय आवास काल (आरंभिक हड़प्पा काल) इनटीग्रेशन / सामूहिक गठन (हड़प्पा सभ्यता का) काल बसाहट काल (अर्वाचीन हड़प्पा काल ) उत्तर सैंधव काल / सैंधव गंगा सभ्यता काल क्षेत्रज सभ्यता काल (रंगे गए भूरे मृद पात्रों वाला युग) उत्तर भारत के काले पालिश वाले मृद पात्रों का काल आरंभिक ऐतिहासिक काल लगभग 800 ई. पू. से सिध्दार्थ गौतम बुध्द पाणिनि सिकंदर Jain Education International लगभग 20 लाख से 7 लाख वर्ष पूर्व तक लगभग 7 लाख वर्ष से 1 लाख वर्ष पूर्व तक लगभग 1 लाख वर्ष से 30 हजार वर्ष पूर्व तक लगभग 30,000 से 10,000 वर्ष पूर्व तक 10,000 से 1,000 वर्ष पूर्व तक 196 10,000 से 6500 ई. पूर्व तक लगभग 6500 से लगभग 5000 से 5000 ई. पू. तक 2600 ई, पू, तक लगभग 2600 से 1900 ई. पू. तक लगभग 1900 से 1300 ई. पू. तक, लगभग 1200 से 800 ई. पू. 700 से 500-300 ई. पू. 360 ई.पू. इस प्रकार इतिहासकारों ने श्रमण परम्परा में मात्र बौध्द श्रमणों को ही मान्यता दी है और जिनधर्मी मूल श्रमण परम्परा की न केवल उपेक्षा की बल्कि उसे भुलाने की हठधर्मी की है। पिछली शती में 1893 के शिकागो में हुए प्रथम विश्व धर्म सम्मेलन के बाद कुछ जर्मन विव्दानों अलब्रेख्ट वेबर, व्हीलर, ब्युलर, हर्मन जैकोबी, लोयमन, शूब्रिंग, जेम्स टॉड, हेल्मुट फॉन ग्लस्नप्प, लुडविग ऐशडॉख आदि ने उपलब्ध प्राचीन जैन साहित्य को पढ़ने समझने में बहुत परिश्रम किया और इसे मूल श्रमण धर्म भी प्रकाशित किया किंतु भारतीय इतिहासकार अपनी ढपली बजाने में लीन पार्श्वनाथ से अधिक इतिहास की गहराई में नहीं झांक सके बस इसी कारण सँघव जैसी सहज लिपि को अपने चारों ओर बिखरी पुरा निधि के अंबार के बावजूद रेबस जैसी सहज विधि के उपयोग के बाद भी एक पूरी शताब्दी खोकर भी नहीं समझ सके. यही विडम्बना रही वे सब मर्म नहीं, उस लिपि में एक नई भाषा खोजते रह गए। इतिहासकारों का सारा प्रयास जिस प्रकार ईस्वी शती को केन्द्र बना आगे बढ़ा है उसी प्रकार वे भारतीय इतिहास को वैदिक घेरे में बांधकर देखना चाहते हैं जबकि सैंधव लिपि युग पूर्व वैदिक, नियोलिथिक युग से सिकंदर / मौर्य काल तक जाना जाता है तथा वैदिक मान्यताओं से संपूर्ण हटकर है। सारे भारतीय धर्मों की सैंधव श्रमण मूलाधार परम्परा को वैदिक नहीं उसके मौलिक आधार से ही आंकना होगा। पुरालिपि अंकित क्षेत्रों को नष्ट होने से बचाना होगा। 563–483 ई. पू./440-360 ई. पू 500 400 ई. पू. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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