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________________ के उत्थान की बात करता है। चतुर्थ गुणस्थानी व्यक्ति जाग कर अनुयोगरत हो जाता है। प्रथमानुयोग उसके चिंतन को खोलकर विस्तृत आयाम देता है। करणानुयोग उन सब पूर्वकारणों को बतलाता है जिससे घटनायें घटी। चरणानुयोग व्यक्ति को उसके आचरण की राह दिखाता है। द्रव्यानुयोग जैनसिद्धांत को स्पष्ट करता है। जैनाचार्य चारों अनुयोगी होते हैं। वे अध्यात्म, न्याय और व्याकरण तीनों में ही नरपुगंव रहे हैं। इसीलिए उनके लिखे ग्रंथ भाषा तथा तर्क पर अकाट्य हैं, प्रभावी हैं। व्दादशांगी जिनवाणी के धर्म में "कर्म" की सत्ता सर्वाधिक बुलंद मानी गई है और अत्यंत आश्चर्य की बात है कि इस काल में भी उसके प्रमाण हेतु शिलालेख भी मिलते हैं। सबसे सुंदर शिलालेख सिंधु लिपि का विन्ध्यगिरि पर मिला है (चित्र) जिसमें सैंधव लिपि के चार अक्षर एक खड़गासित जिनमुद्रा के साथ अंकित हैं। वे जैनधर्म का ठोस एवं सूक्ष्मतम उपदेश बायें से दाहिने देते हैं कि इच्छा निरोध द्वारा स्वसंयम के पश्चात् नरभव को ही संभावित मूल व्रत धारण करके रत्नत्रय का धारण एवं सप्ततत्व चिंतन करना उपादेय है।वह अंकन आत्म विनयी पुरुष को कर्मास्रव के विषय में चिंतन योग्य बनाता है कि आत्मा की विशुद्धि बढ़ाते हुए किस प्रकार से लक्ष्य की प्राप्ति (मोक्ष) हो । आत्मा अपने निज स्वरूप में आवे । यही जैनधर्म का सार है। इस अंकन को श्री महादेवन की विधि से पढ़ने पर दाहिने से बाएं अर्थ "सामने की जिन मुद्रा सप्त तत्त्व चिंतन और रत्नत्रय की साधना करते हुए महाव्रती के स्वसंयम धारण करने का परिणाम है" मिलता है। इस अंकन से यह संकेत मिलता है कि जीवन की यात्रा मृत्यु से बालपने की ओर नहीं बल्कि बालपने से बृद्धपने और मृत्यु की ओर होती है । अतः महादेवन की लिपि पाठन की दिशा इस प्रकरण में दाहिने से बायें नहीं बायें से दाहिने ही सही प्रतीत होती है । बालपने में अथवा प्रारंभ में असंयमी ने संयम धारकर आत्मोन्नति का पथ पकड़ा और लक्ष्य की प्राप्ति की है । यही "जैन धर्म का सार" इस पुरालिपि के कुंजी अंकन से सामने आया है । जो संकेत देता है कि संपूर्ण लिपि को L-R भी पढ़ा जाना सही है भले ही हमने इस ग्रंथ में संपूर्ण लिपि को महादेवन की ही पाठन दिशा प्रयोग करके प्रस्तुत किया है । एक धूमिल मछली भी खड़ी दिखाई देती है । पुरालिपि के इस लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका एक-एक संकेताक्षर प्रस्तुत सीलों में इस प्रकार कम से अंकित किया गया है कि वह जैन सिद्धांत को अक्षरशः बिना किसी अनुमान और खींचतान के स्पष्ट कर देता है । जैन अध्यात्म, आगम और भावना ग्रंथ तीनों की सुंदर अभिव्यक्ति इस लिपि में प्राप्त अंकनों में स्पष्ट झलक रही है जो यह दर्शाती है कि अध्यात्म की इस वीतराग भाषा को संसारी नहीं मात्र मोक्षमार्गी ही समझ सकता था । इसलिए उपेक्षा वश संसारियों ने इसे छोड़ दिया । उस प्राच्य काल में भी लिपि थी परंतु वह लौकिकता के लिए कुछ अलग ही रही होगी । हमारी यह पुरालिपि तो मोक्षमार्ग की अनमोल संपदा है जो चारों अनुयोगों और निश्चय-व्यवहार पक्ष से अनुप्राणित है । "अस्ति पुरुष चिदात्मा" ही इसका आधार है । जीवन का लौकिक सुख भी इसमें आस्रव बंध रूपी रोग है। संवर, निर्जरा पथ्य और मोक्ष, शुद्धात्म-स्वस्थता का सोपान है। यही इस पुरालिपि का लक्ष्य है ।जिन भव्यों ने इसे धरती की गहन गोद में लंबी नींद से उत्खननों द्वारा निकालकर विश्व के सामने लाकर रखा वे धन्य हैं । उन्होंने अथक परिश्रम से पूरी शताब्दी लगभग इन अवशेषों को संजोने, सुरक्षित करने, पठन योग्य बनाने में अरबों-खरबों डॉलर और अपने समूचे जीवन के क्षणों को अर्पित करके हमारे सामने रखा है। वे तपस्वी भी पुण्य के भागी हों और उन्हें भी इस अनमोल आत्मधर्म का मर्म समझ आ जावे ताकि उनका जीव जहाँ भी हो उन्नति पाकर जाग जाए, हमारी तो यही भावना है । उनके उस संपूर्ण महत् परिश्रम के लिए हम आत्मा की गहराई से उनके आभारी हैं । भले उन्होंने इसका मूल्य जानकर भी नहीं समझा किंतु हमारी इस पंचम कालीन पीढ़ी पर वे अनजान में बहुत बड़ा उपकार कर गए हैं उन्हें कोटिशः धन्यवाद । इसी भाषा में पंचगुरुभक्ति है जिसे सैंधव लिपि में भी लिखा जा सकता है। - 194 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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