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________________ समापन चौदह गुणस्थानों की अत्यंत सरल व्यवस्था में जैनधर्म के गूढ़ सिद्धांतों को सहज बोधगम्य बनाने का प्रयास हुआ है। प्रत्येक जीव पैदा होकर सामान्य प्राणियों की तरह नौ भाव-पगे रसों के झूले में चढ़ता उतरता है। ये रस चारों कषायों का अलग-अलग गहनता में आस्वादन कराते हैं। इसके अनुसार प्रथम गुणस्थान में तो सारे ही जीव अनादिकाल से पड़े हैं जो अनंतानुबंधी कषायों में उलटते पलटते रहते हैं और मिथ्यात्व में जीते हुए हर मन पसंद वस्तु को अपने ही पास चाहते हैं। इसे हम सहज रूप में यों प्रस्तुत करते हैं। 'मेरा तेरा' करता हुआ प्रत्येक जीव/मानव कुंठित संसार में जीता कोध, मान, माया, लोभ के चारों कषायों के चार-चार प्रकारों में रहता आर्त रौद्र परिणाम करता है। इससे उसे जो कर्मास्रव होता है उसका उसे ध्यान ही नहीं रहता। "मेरा" भी भ्रम है और किसी वस्तु को “तेरा" कहना भी मिथ्या है, क्योंकि यहाँ इस संसार में मेरी "स्व" आत्मा के सिवाय मेरा कुछ भी नहीं है, यह तो प्रत्येक अनुभव सदैव कहता है फिर भी भ्रम में व्यक्ति जीता है यही उसका "मिथ्यात्व" है। सोलह प्रकार के कषायों के सिवाय नौ नोकषाय भी सदैव घेरे ही रहते हैं : हास्य, विस्मय, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, तीन वेद जिनमें पड़कर हम "कषाय" करते हैं अर्थात् अपनी "आत्मा" को जबरन सताते हुए कसते हैं और टेंशन में डालते हैं। सो वह “कसती" है-तड़पती है और स्वभाव से हटकर " दुर्भाव" करती है। तिस पर हम दोष दूसरों पर डालकर स्वयं को निर्दोष दिखलाने का छल करते हैं। इन पच्चीस कषायों से बचने के लिए गुरु उपदेश देते हैं। तीव्रतम कषाय प्रथम गुणस्थान में रहती है अर्थात् पच्चीसों रहते हैं। इनके सहयोगी 15 प्रमादी योग. 5 मिथ्यात्व और 12 अव्रत होते हैं जो अग्नि में घी अथवा कपूर का कार्य करते हैं। प्रथम गुणस्थान में व्यक्ति 2 दुर्ध्यान (आर्त-रौ) अर्थात् चार कषाय 'अनंतानुबंधी' वाले करते हैं। उस समय उसके परिणाम संक्लेषी रहते हैं और कर्मास्रव होता है। इनसे बचने के लिए सारे दुर्ध्यान "त्यागने" पड़ते हैं। जैसे ही आत्मा अनंतानु बंधी कषायों को त्यागती और सत्य की अनुभूति करती है वह उछाल लेकर चतुर्थ गुणस्थान में पहुंचती है। वहाँ पात्र सत्य को उघड़ता देखता है ।यदि वह वहाँ पुरुषार्थ करे तो वहीं से "तीर्थकर प्रकृति को बांध सकता है। यहाँ उसकी भूमिका "श्रावक" की होती है। वह दो धर्मध्यानों आज्ञा विचय और विपाक विचय का स्वामी होता है। पुरुषार्थ करते अर्थात् व्रत लेते ही (प्रतिमा/अणुव्रत) वह पंचम गुणस्थानी हो जाता है। अब वह तीन धर्मध्यानों अपाय विचय का भी स्वामी होता है और "उच्च श्रावक" कहलाता है। उसके जीवन में रत्नत्रय आ जाता है और वह मोक्ष पथ पर अपने चरण बढ़ा चलता है। वह मोक्ष पथ उन भव्यात्माओं ने दिखलाया है जो उस पर चलकर स्वयं अरिहंत और सिद्ध हुए हैं। जैनधर्म में इन्हें ही भगवान् /इष्ट/God कहा जाता है। किन्तु वह कर्ता हर्ता नहीं है। आत्मा स्वयं ही स्वयं का उध्दारक अथवा दुःखों में गिराने वाला होता है। किंतु मुख्य बात ध्यान देने की है कि "जब जागे तब सबेरा" वाला सूत्र लागू होने से प्रत्येक जीव के स्वकल्याण का व्दार खुला रहता है।समस्त प्राणियों में मनुष्य ही सबसे सामर्थ्यवान है अतः उसे रक्षक मानते हुए सबका स्वामी कहा जाता है। जैनधर्म का सिद्धांत अत्यंत सहज और जीवन में उतारने से आत्मा की ओर उपयोग वाला सरल है अन्यथा तो पर्याय बुद्धि होने से उतना ही कठिन है। आज तक जिस-जिस भी व्यक्ति ने जैनधर्म का अज्ञानता वश विरोध किया है उसकी पर्याय बुद्धि रही है (वह मिथ्यादृष्टि है)। जैनधर्म निश्चय "आत्मा" और व्यवहार "शरीर" दोनों की ओर दृष्टि रखकर जीव 193 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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