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________________ ऋषभ राज के बतलाए षटकर्मो को अपनी अपनी येग्यतानुसार चुनकर जीवन यापन करने वाले वे " उत्तम खेती मध्यम बान, अधम नौकरी भीख निदान" विचारकर प्रथमया कृषक रहे। कृषि हेतु अनेक लोगों को अपने पास रोजगार देते हुए वे गौपालन, डेरी उद्योग, उपज भण्डारन हेतु नैसर्गिक जल स्त्रोतों के समीप बसे । उपज भण्डारन और जल सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही तीन स्तरीय आवासीय बसाहट की। केंद्र में ऊँचाई बनाकर अन्न भण्डारन और पेयजल को सुरक्षा दी। धार्मिक, अहिंसक जीवन पद्यति के लिए कुओं के जल अथवा वर्षा जल का उपयोग उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया । आवागमन के लिये बस्ती में पक्के पथ बनाकर जल प्रदूषण से बचाव हेतु किनारों पर नालियां रखीं जिनमें उफान रोकने के लिए प्रत्येक घर के सामने घर से निकले नालीजल हेतु ढंके कुंड बनाए । सामूहिक तौर पर सर्वसम्मति से अपना कर्तव्यनिष्ठ, जुझारू, ज्ञानी नेता चुना और उसे छत्र सौंपकर अपने उस जनसमुदाय को सुरक्षित किया। उस नेता को अपनी सुरक्षा का भार सौंपकर उसे केन्द्र में रखा। बाहरी घेरे में कृषकों ने अपनी कृषि और पशुओं के तथा अपने क्षुद्रों / सेवकों के लिये स्थान लिया किंतु इनके बीच कोई ऊँच नीच का भेद नहीं था। बीच के घेरे में बचे वाणिज्य में रुचि रखने वालों ने स्थान पाया। वे वाणिज्य कर्मी केवल अहिंसक व्यापार करते थे। जल और थल मार्गों से वे दूर दूर तक सामग्री और मुद्रा का विनिमय करते आगे बढ़ते जाते और वर्षों बाद लौटकर आते। कुछ सैंधव सीलों पर जलपोतों के अंकन भी दिखते हैं। उन पर भी अंकन जिन सैध्दांतिक ही दर्शाए गए हैं। इस प्रकार संपूर्ण सैंधव सभ्यता जिन श्रमण प्रभावी सभ्यता ही प्रमाणित होती है जिसमें लिपि का अपना विशेष मौन उपदेशात्मक महत्व भी था। हमारी वर्तमान भाषा में भी शब्द का अर्थ नहीं मात्र संकेतात्मक महत्व है जहाँ उन संकेतों के अर्थ की महत्ता है। अब भी जिन धर्मियों में वही परंपरा चालू है जिसके अंतर्गत वे अहिंसक व्यापार, उद्योग व्यवसाय और नौकरी अथवा कृषि चुनते हैं। अल्पतमसंख्यक होने के बावजूद सर्वाधिक शिक्षित तथा सबसे कम अपराध प्रवृत्ति वाला, मूल सुदृढ़ संस्कृति वाला, कर्मठ समाज बनाते हैं। शुध्द आहारी, शाकाहारी होने के कारण जिनधर्मी भिक्षा को आजीविका नही बनाता। मितव्ययी आहार और धार्मिक प्रभाव में नशा प्रवृत्ति से दूर वह अल्प उपार्जन में भी संपन्न लगता और स्वेच्छा से दानादि करता है। कदाचित इसी कारण उसे जैनेतरों ने सदैव ईर्ष्या की दृष्टि से देखा है। व्यापारी और पाप भीरु होने के कारण समाज और देश की प्रत्येक हितकारी योजना में उसका सर्वाधिक तन मन धन से योगदान रहा है। फिर भी इतिहास साक्षी है कि कष्ट झेलते उपसर्ग मय होने पर भी धर्म के प्रभाव में वह आत्मकेन्द्रित और सहनशील रहा है। मनुष्य मन से चंचल और प्रवृत्ति से असंयामी और स्वच्छंद है। अध्यात्मिक धरातल पर धर्म मानव को आत्मोन्नति की राह पर प्रगति कराता मुक्ति के व्दार तक ले जाता है तो सामाजिक धरातल पर वह उसे स्वसंयम में ढालकर नैतिक और करुणामय जीवन जीने को मार्ग प्रशस्त करता है। जैनधर्म दोनों दिशाओं में संपूर्ण खरा उतरा है। प्रत्येक जैन परम्परागत उस प्राचीन काल से ही जब आवागमन के साधन सीमित थे तीर्थयात्री संघों और चतुर्विध संघों के साथ विहार करते निर्वाण स्थलियों की पावन रज माथे पर लेने जीवन में एक बार अवश्य जाना चाहता रहा है। वे यात्राऐं अंधविश्वास की नहीं पुरा युग से अब तक के समस्त तपस्वियों के प्रति भक्ति और उत्साह पूर्वक विनय की अभि व्यक्ति होती हैं और तपस्या का स्वाद चखने की दिशा में प्रथम चरण होती हैं जो उसकी सहनशीलता को संबल देती हैं। जैनों की पापभीरुता को जैनेतरों ने अज्ञानतावश गुण ना मानकर अवगुण माना है क्योंकि अवगुणी कभी गुणी को सहन नहीं कर पाता है। यह एक गंभीर दृष्टिदोष और प्रजातंत्र के नाम पर कुत्सित कलंक है। 192 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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