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________________ डी.डी, कोसाम्बी के अनुसार सम्राट सिकंदर ने 326 ई.पूरावी के तट पर दिगंबर / जैन साधुओं को देखा था। थामस के अनुसार वह एक जैन साधु को अपने साथ यूनान भी ले गया था। डॉ. प्राणनाथ ने मोहन्जोदड़ो हड़प्पा की खुदाइयों से प्राप्त मोहरों और फलकों पर खुदे लेख प्राचीनतम भारतीय लिपि के चिन्ह माने हैं। उन पर अंकित आकारों की कायोत्सर्गी मुद्रा को उन्होंने तीर्थकर मुद्रा माना है और उन पर खुदे लेखों को जैन लेख । एक लेख को उन्होंने " ऊँ जिनाय नमः " पढ़ा है। राय बहादुर प्रो, के. रामप्रसाद चंदा के अनुसार मोहनजोदड़ो और मथुरा की मूर्तियों में हू बहू साम्य है। अर्थात वैसी ही कायोत्सर्गी मुद्रा, वैसी ही ध्यानावस्था और वैसी ही वैराग्य दृष्टि । यद्यपि मिस्र और ग्रीक की प्राचीन मूर्तियों की भी कायोत्सर्गी मुद्रा है किंतु वैराग्यपूर्ण ध्यानावस्था नहीं। यह बात केवल जैन मूर्तियों में ही प्राप्त होती है अन्यत्र नहीं। डॉ, मोहनलाल गुप्ता ने प्रश्न उठाया था कि यदि श्रमण विचारधारा इस क्षेत्र में प्राचीन समय से थी तो बाद में स्पष्टतः उसके दर्शन क्यों नहीं हुए ? सहज उत्तर था कि उसे देखने से पहले ही पलकें झपका ली गई किंतु इतिहास की भाषा में अब यहाँ प्रस्तुत की गई कुछेक सचित्र कुंजियाँ उन्हें उत्तर स्वरूप हैं जिन्हें कोई उत्तर देने के प्रयास में मैने नहीं खोजा उल्टे वे ही मेरे सामने आ आकर मेरी दृष्टि को उलझा गई हैं। जैन मान्यतानुसार यह सब काल का प्रभाव है मैं तो अदृष्ट आशीर्वादों के प्रभाव में मात्र एक निमित्त बनी हूँ' । वे तो सभी अपनी अपनी जगह उपस्थित थीं उन्हें अज्ञानतावश अनदेखा छोड़ दिया गया था। अभी और कहाँ कहाँ वे छिपी पड़ी हैं वह आगामी समय बताऐगा। बस उसी सत्य उदघाटन हेतु अपनी इस शोध को समर्पित पुरा प्रेमियों के सम्मुख रख रही हूँ कि वे इसमें अपनी अपनी शोध का योगदान खुले हृदय से कर सकेंगे। डॉ, डिरिंजर का अभिमत है कि 600 ई.पू. उत्तर भारत में ऐसी अद्भुत कांति हुई कि उसने भारतीय इतिहास को अत्यधिक प्रभावित किया। डॉ. व्युलर का भी अभिमत है कि बौध्द आगमों की रचना से भी पूर्व लोग लेखन कला से सुपरिचित थे और उनमें लेखन का पर्याप्त प्रचार था। डॉ. व्युलर और डॉ विन्टरनिट्ज ने ऋषभदेव को वेदपूर्व कालीन ही माना है। सैंधव सभ्यता इसीलिए जिन श्रमण परम्परा के प्रभाव में अभिव्यक्तियां देती है और जिन बिंबों एवं जिन संदों में ही मात्र वह अब तक कुंजी रूप सर्वत्र देखने में आई है। गौतम बुध्द के जन्म से पूर्व कालीन रचा साहित्य स्वाभाविक है कि वह पूर्व परम्परा के आचार्यों ने लिखा था जो जिन श्रमण कहलाते थे।महावीर से पूर्व के 23 तीर्थंकर उसी वीतरागी, लौकिकता से परे, आत्मसाधक, मोक्षपथी परम्परा के प्रवर्तक थे। महावीर और बुध्द दोनों ने ही पूर्व प्रचलित पार्श्वनाथ की परंपरा में चले आ रहे तपमार्ग को चुना था। जब तक गौतम, श्रमण रहे, वे अनुगामी रहे। छह वर्ष बाद मूल धारा को छोड़ उन्होने एक नई धारा, नए धर्म को जन्म दिया। भला ऐसी स्थिति में पूर्वागत परम्परा और पूर्व में रचे गए साहित्य पर उनका प्रभाव बतलाना कैसे सही है ? किंतु कतिपय विव्दानों ने ऐसा ही माना है। दूसरी बात, आश्चर्य का विषय है कि गौतम बुध्द की चर्चा सुनते ही 'निकाय' और 'पिटक' रचे जाने लगे, वेद तो थे ही तब क्या जैनाचार्यों ने श्रावकों और अनुगामी श्रमणों के हितार्थ कुछ भी लिखित नहीं छोड़ा होगा? वेदांग ज्योतिष, जिन्हें लगभग 1200 ई.पू. का और बौध्दायन सुल्व सूत्र 800-1000 ई.पू.का माना जाता है तब बौध्द साहित्य किस आधार से माने गए? जैनाचार्यो का रचा साहित्य न केवल जलाया गया बल्कि चोरी भी हुआ है क्योंकि त्यागी, विनयवान तपस्वी साहित्य रचकर उस पर अपना अधिपत्य नहीं रखते थे। जितना नष्ट करते बना अज्ञानियों ने उतना जैन साहित्य, जिनबिंबों, जिनमंदिरों, जिन क्षेत्रों, अप्रतिकारी जिन तपस्वियों और जिन भक्तों को क्षति पहुंचाई । अब प्रमाणों को आधार बनाकर देखना समुचित सावधानी से ही होना चाहिए। 191 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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