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जैनाचार्य पूज्यपाद ने वर्षों विश्व विख्यात नालंदा विद्यापीठ में रहकर विश्व से आए शिक्षार्थियों को ज्ञान दान दिया था क्योंकि वह एक प्राचीन जैन विहार और शिक्षा केंद्र था । वह क्षेत्र पूर्व में महावीर की ननिहाल थी। वहीं के उत्खनन से प्राप्त सामग्री में पकी मिट्टी का लाल रंग का एक नंद्यावर्त्य तो मिला ही है कुछ जिन विब भी मिले थे जिन्हें वहीं म्यूजियम में रख दिया गया है। एक प्राचीन खड़गासित, हिरण चिहिंत शांतिनाथ हैं और एक बैठे पार्श्वनाथ। बैठे सप्तफणी धरणेन्द्र को वहाँ नागराज और शांतिनाथ को ऋषभदेव दर्शाया गया है। नालंदा में 52 तालाब हैं। अवशेषों में 8 विहार दिखलाई देते हैं जिनमें प्रत्येक में एक एक पुराकालीन कुआं और एक एक मंदिर उनके जैन विहार होने को प्रमाणित करते हैं। कुओं की प्रधानता सैंधव युगीन मात्र जिन श्रमण परंपरा के कारण ही रही है जो आज भी नलों, ट.यूब वैलों के युग में भी वैसी ही जीवंत बनी है। उस बड़े नंबर 3 स्तूप वाले मंदिर के बाद भी प्रत्येक तथाकथित विहार का मंदिर वहाँ के आवासियों के षट आवश्यक हेतु रहा गया होगा। प्रत्येक में विद्यार्थी वहीं गुरुओं की छांह में रहकर विद्यार्जन करते और गुरुओं की भक्ति करते थे। तब वह बड़ा मंदिर विहार करते श्रमणों हेतु रहा होगा। विशाल उसी पंचशिखरी जिनमंदिर को बाद में स्तूप/समाधि स्थल बनाकर ईंटों से ढंक दिया गया (चित्र) महावीर के लगभग 900 वर्ष बाद उस विहार को बौध्दों ने ले लिया। जब ऊँचे विशाल मंदिर को स्तूप में परिवर्तित करके समूचा मंदिर ही ईंटों से ढंक दिया गया उसके बाद तो फिर वहीं देखते देखते छोटे छोटे स्तूपों की भीड़ लगा दी गई क्योकि वह जिनश्रमणों के विहार के लिए बचने ही नहीं दिया गया था। कनिंघम ने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व तक उत्खनन करवाकर आंशिक ऐतिहासिक अवशेषों को ही निकलवा पाया था। यदि वह बौध्द मंदिर होता तो उसे समूचा उघाड़कर विश्व के बौध्दों के दर्शनार्थ पूरा खोलकर रखा जाता। उस के समीप पहुंचने से रोका नहीं जाता। वहाँ के' 108 टीलों में से मात्र 11 की खुदाई की जा सकी है। कहा जाता है कि उस परिवर्तन की आँधी मे वहाँ के ग्रंथागार को भस्म करने के लिए सैनिकों ने ग्रंथों को जला जलाकर छह माह तक आग की लपटों को जीवित रखा था बुझने नहीं दिया। अब वह समूचा वैभव पुरातत्व विभाग व्दारा प्राचीन जैन नहीं बौध्द अवशेष प्रचारित तो किया जा रहा है आचार्य पूज्यपाद को भी उनके व्दारा लिखे गए अनेक जैन ग्रंथों के बावजूद बौध्द परंपरा का ही घोषित किया जाता है। भ्रामक इस इतिहास को सुलझाने में किसी में भी रुचि नहीं दिखती।।
टी.एन, रामचंद्रन के अनुसार महावीर और बुध्द से भी पूर्वकालीन सैंधव युग से ही तक्षशिला और नालंदा विश्व के प्रख्यात विद्याकेंद्र थे। ऋषभदेव ने बाहुबलि को पूरा पश्चिमोत्तर प्रदेश बंटवारे में दिया था। उसकी राजधानी तक्षशिला थी। -'ततो भगवं विहरमाणों बहली विसयं गतो । तत्थ बाहुबलीस्स रायहाणी तक्खसिला णामं आवश्यक सूत्र नियुक्ति, पृ. 180/8 - उस्सभणिजस्स भगवो पुत्तसयं चदसूरसरिसाणं, समणत्तं पडिवन्नं सए य देहे निखयक्खं तक्खसिलाए , महप्पा बाहुबली तस्स निच्चपडिकूलो, भरहनरिंदस्ससया न कुणइ आणा पणामंसो । अहरुद्वो चक्कहरो तस्सुवरि सयण साहण समग्गो, नयरस्स तुरियचवलो विणिग्गओ सयल बल सहिओ पत्तोत्तक्खसिलपुरं जयसढुणुघुत कलयलारावो, जुज्झस्स कारणत्थं सन्नध्दो तक्खणं भरहो। बाहुबली वि महप्पा भरहनरिंदं समागयं सोउ, भडचडयरेण महया तक्खसिलाओ विणिज्जाओ पिउमचरियं विमलसूरि 4/37/41
ब्राम्ही का भी अधिकांश तपस्यारत जीवन वहीं बीता। गद्दियारो के केंद्र स्थान भरमौर से एक मील ऊँचाई पर काष्ठ का बना ब्रम्हाणी देवी का मंदिर है। कनिंघम ने पूर्ण विश्वास और प्रामाणिकता से उस मंदिर के नीचे से खुदाई में मिली वेदी को जैन धर्म की बतलाया है। जैनागमानुसार - - "सा च बाहुबलिने भगवता दत्ता प्रव्रजिता प्रवर्तिनी भूत्त्वा चतुरशीतिपूर्व शत सहस्त्राणि सर्वायुःपालयित्त्वा सिध्दा " । कल्पसूत्र
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