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भील आदि जो स्वयं को द्रविड़ कहने में गौरव रखते हैं मूल में जिन परम्परा की शाखाएं हैं जिन्हें आरोपित अत्याचारों ने उनके मूल से विलग करके दूर तो कर दिया किंतु उनमें से अधिकांश ने अपनी मूल संस्कृति को किसी न किसी रूप में संजोए रखा । कुछ ने उसे संपूर्ण रूप से खोकर भी आराध्य बिम्बों को कुलआराध्य के रूप में अज्ञानवश बलि देकर, अन्यथा अलग रस्म से पूजाविधि से संजोए रखा यथा-अहार जी क्षेत्र के शांतिनाथ, बावनगजा के आदिनाथ, कम्मदल्ही के समस्त जिन, छत्तीसगढ़ के बूड़ा देव, नागरकोविल के सुपार्श्वजिन, केशरिया जी के कालादेव, कोलुहा के पार्श्वनाथ, अंजनेरी के अरहनाथ, खण्डगिरि के पार्श्वनाथ,केदारनाथ के आदिनाथ, गिरनार के अधिकांश जिन, बालाजी के नेमिनाथ, धाराशिव जिन, कळगुमलै के गुफा जिन आदि।
पाश्चात्य धारणाओं के आधार पर लिखित इतिहास पर हम विश्वास करें या कि प्राप्त पुरा आधारों पर अथवा हमारे प्राचीन साहित्य पर करें, इसका निर्णय हमें स्वयं लेना है। पुरा प्रमाणों को झुठलाया नहीं जा सकता उसी प्रकार हमारा प्राच्य साहित्य भी ठोस प्रमाण है। सर्व प्राचीन ग्रंथ स्वयं ऋग्वेद ऋषभ और अरिष्टनेमि की चर्चा करता है अर्थात न केवल उनको पूर्व कालीन घोषित करता है बल्कि उनके प्रति श्रध्दा और समर्पण भी दर्शाता है। उत्तरकालीन सारा प्राचीन भारतीय साहित्य अरहंतों और तीर्थंकरों संबंधी स्तुति के वचन लिखता है। मात्र पार्श्वनाथ और महावीर वेदकालीन तीर्थंकर हैं जिनके विषय में भी वेदों, पुराणों में स्तुत्य ही वर्णित है तब जिनधर्म ही सनातनधर्म स्वयं घोषित हो जाता है। फिर भी पढ़ाए जा रहे इतिहास के पाठ,यक्रमों में जैनधर्म संबंधी सही इतिहास की उपेक्षा करते हुए भ्रामक बातें पढ़ाई जाती हैं। इस तरह सचाई को अनदेखा करके जैन धर्म को अर्वाचीन बतलाने का मात्र एक प्रपंची पूर्वाग्रह प्रतीत होता है जो भारतीय इन सैंधव प्रमाणों के आधार पर भी गलत ही सिध्द हुआ है अतः अविलम्ब सुधारे जाने योग्य है।
दूसरी ओर स्वयं को द्रविड़ कहने वाला समाज उतना ही मूल भारतीय है जितना कि आर्य कहा जाने वाला क्योंकि प्राचीन जैन साहित्य में उल्लिखित जैन भूगोल के आधार पर जंबू व्दीप के भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड के भारतवर्ष में सारे ही निवासी आर्य अर्थात भद्रजन कहलाते थे । ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि दिगम्बराचार्य पिहितास्त्रव की परम्परा में (जिनसे गौतम बुध्द ने दीक्षा ली थी) पूज्यपाद प्रथम /नागार्जुन के मामा प्रसिध्द आचार्य हुए हैं जिनके शिष्य वजनन्दिनन्दि ने विक्रम सं 536 में द्रविड़ संघ की नींव डाली थी जिसके समर्थक द्रविड़ कहलाए। चूंकि वे भी मूल से जिनधर्मी ही थे अतः प्राकृत ही उनकी भाषा थी जो संपूर्ण भारत मे क्षेत्र के अनुसार बदलती गई है। मूल जैन साहित्य उसी भाषा मे लिखा पाया जाता है भले लिपि कोई भी हो। तमिल भाषा में उसका साहित्य होना या कुछ शब्दों का पाया जाना भी आश्चर्य की बात नहीं है। ब्राम्ही ही नहीं तमिल, कन्नड़, मरहठी, सिन्धी, राजस्थानी ही नहीं भारतीय हर भाषा ने उस सैंधव प्राकृत से शब्द लिए हैं ।
__दक्षिणी पठार सम जलवायु और गुफाओं कन्दराओं के कारण श्रमणों के चातुर्मास और विहार के लिए अनुकूल रहा होगा इसीलिए तमिलनाडु, केरल, श्रीलंका में जिनश्रमणों का अशोकपूर्व कालीन होना जैन साहित्य में चर्चित है। आज भी तमिलनाडु में लगातार शिलाएँ काटे जाने के बाद भी देश की सर्वाधिक जैन मंदिर गुफाऐं वर्तमान हैं जिनमें से अनेकों में पुरा संकेताक्षर हैं। विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि शैलांकित तीर्थंकरों में प्रधानता पार्श्वनाथ नहीं पांचफणी सुपार्श्वनाथ की है जो वहाँ के पुरा अंकनों के अनुकूल सैंधव युगीन आंकी जाना चाहिए। महाराष्ट्र में प्रधानता सात, नौ और अनेक फणी पार्श्वनाथ की है। तीर्थंकरों के विहार पूरे भारत में हुए अतः अनुगामी तपस्वियों ने उनके तप तीर्थों पर तपस्या चालू रखीं।
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