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क्षेत्रों को अशोक और उत्तर वर्ती राजाओं के काल में विहार करते बौध्द श्रमणों के आवास हेतु भी उपयोग में लिया जाता रहा। कलिंग विजय के बाद सम्राट अशोक के मानसिक परिवर्तन की झलक हमें उसके व्दारा जूनागढ़ में लिखवाए 14 शिलालेखों में देखने को मिलती है जिसमें उसने बार बार लिखवाया है कि 'प्रियदसि ने जीवों और प्रजा के हित में अपनी कर्त्तव्य पूर्ति हेतु सड़कें बनवाईं, कुऐं खुदवाए पशुओं मनुष्यों की सुखसुविधा के लिये वृक्ष लगवाए। माता, पिता की सेवा, ब्राम्हणों, श्रमणों (जैन श्रमण एवं बौद्ध भिक्खु) तथा साधुओं जो अनारंभी हैं के लिये दान की व्यवस्था धर्मार्थ उसने उसके पुत्र, पोते और प्रपीत्र की सहभागिता से की। कलिंग का नरसंहार उसकी विजय नहीं आत्म पराजय थी, पतन था, जिसे वह मेटना चाहता था।
इतिहासकार, पुराविद एवं भाषाविद किस आधार पर श्रमण का अर्थ मात्र बौध्द श्रमण लेते हैं वे ही बता सकेंगे किंतु ऐतिहासिक आधार पर गृह त्यागकर सिध्दार्थ ने जिन श्रमण पिहितास्त्रव से दिगम्बरी दीक्षा लेकर श्रमण बनकर कठोर तप छह वर्ष किया था । 'उपवास करते, दुर्बल, ज्वर पीड़ित और निराश होकर वे श्रमण संघ छोड़कर अलग अकेले विचरने लगे। उनके श्रमण साथी भी उनसे दूर हट गए। तब उन्हें आहार में जब, जो, जिससे मिला उन्होने उसे बिना प्रश्न किए स्वीकार करके खाया '। वे तब श्रमण नही भिक्खु थे । कदाचित उनके 6 वर्षों के उस श्रमणत्व को ध्यान करके ही बौद्ध भिक्खुओं को अब भी श्रमण ही समझा जाता है किंतु वह सही तो नही है। इसी भ्रम में अधिकांश जैन गुफाओं तथा गुफा मंदिरों को उनमें जैन प्रमाणों के बावजूद पुराविद बौध्द गुफाओं के रूप में घोषित कर चुके हैं। कतिपय बचे जो जैन क्षेत्र और गुफाएँ हैं वह भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में होकर भी पंडों, महंतों व्दारा विदूषित की जाकर पुरातत्व विभाग के मौन प्रोत्साहन पर हथिया ली गई हैं यथा गिरनार, बाबा प्यारा गुफाऐं जूनागढ़, अंजनेरी, धाराशिव, कळमले, तिरुपन्द्रम पेरुमळमलै, भुवनेश्वर, कोलुहा पहाड़ के पार्श्वनाथ जिन्हें जबरन काल भैरव घोषित कर रखा है।
उस पार्श्वनाथ पदमासित बिम्ब को किसी भी लक्षण से काल भैरव नही कहा जा सकता है किंतु पुरातत्व विभाग के उस समर्थक ज्ञापन लेख के कारण अज्ञानी आदिवासी प्रतिवर्ष उसके सामने पर्वत पर ले जाकर लाखों बकरे काटते हैं और गिरनार, खण्डगिरि, केशरिया जी की तरह प्रशासन उन स्वेच्छाचारियों के अनाचार को वोटनीति के कारण मौन समर्थन और छूट देकर प्रोत्साहन देता है प्रजातंत्र का ऐसा मखौल अन्य किसी धर्म के साथ इसलिए नहीं है क्योंकि उनका बहुमत है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दमन और प्रतारण व्दारा उस सैंधव युग से ही जिस प्रकार जीवन में पाप, पुण्य पर हावी होने की जैसे निरृत चेष्टा करता आया है उसी तरह प्रमादियों ने हिंसा व्दारा इसे सदैव धरती से मिटाने के प्रयास किए। प्रमादी ज की उसी भीड़ में से किसी निखरी आत्मा ने महावीर, गौतम और गांधी जैसा इस त्याग पथ को निरंतर आगे बढ़ाया है।
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आज भी प्रजातंत्र का मुखौटा लगाकर उस मूल संस्कृति को मिटाने का प्रयास चालू है। किंतु शाश्वत सत्य अमिट और अमर होता है। विश्व की तरह भारत में भी अल्पतम संख्यक होकर भी जिनधर्मी स्वधर्म और धरोहर की रक्षा के लिए जागृत हैं प्रयत्नशील हैं। प्रत्येक बार के ऐतिहासिक दमन ने छोटे छोटे समूहों में उस संस्कृति के आराधकों पर अत्याचार करके उन्हें गृहविहीन किया। या तो वे अहिंसक मार डाले गए या उनपर दबाव डालकर उनका धर्मपरिवर्तन कराकर उनसे उनके मंदिर छीन लिए गए संपूर्ण भारत में ऐसे अनेक मंदिर, मठ, मस्जिदें और चर्च हैं जो भारत की मूल अहिंसात्मक इसी जिनधर्मी संस्कृति के आयतन रहे हैं । इसी कारण संपूर्ण भारत मे जहाँ तहाँ खुदाई पर वह पुरा सम्पदा के रूप में सप्रमाण हाथ आ लगती है भले ही सतह पर उसका नाम निशान भी न हो।
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दमन किए गए उन्ही समूहों में सराक, आदिवासी, मण्डल, मांझी, नैनार शेट्टियार / चेट्टियार, शिवपिल्ले, मुदलियार,
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