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तमिल नाडु की नई खोज : हाल ही में तमिल नाडु के ग्राम सेम्बिअन कन्दिउर, मयलादुथुराई, नागपट्टिनम
. श्री महादेवन व्दारा पढ़े गए संकेताक्षर
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के एक शिक्षक व्ही षण्मुगनाथन को उसके घर के पीछे केले नारियल की पौध फैलाने के लिए किए गए गडढों की खुदाई में एक कत्थई रंग की मुट्ठी की पकड़ में समाने वाली पत्थर की लुढ़िया ब मिलने पर उस पर कुछ अस्पष्ट लिखा देख उसने उसे प्रादेशिक पुरातत्व विभाग को दिखलाया। उसका सूक्ष्म अवलोकन किए जाने पर ऊपर दर्शाए चार अक्षर पढ़े गए अ
जो मुझे कुछ हद तक
दिखे । समाचार पत्रों ने इसे खासा महत्व देकर प्रचा
रित किया और इस पर विश्व के पुरालिपिविदों ने उत्साह पूर्वक अभिव्यक्तियाँ दीं। किसी ने उसे महत्वपूर्ण पुकारा तो किसी ने गत वर्ष की महानतम खोज बताया। किसी ने उसे पिछली समूची शताब्दी की उपलब्धि मानकर पुरा पाषाण युग कुल्हाड़ माना जबकि उसके दो में से एक भी सिरा चोट खाया अथवा उपयोग हुआ नहीं लगता। यदि उसे हम हथकुल्हाड़ पुकारें तो भी काटने वाले सिरे के दोनो बाजू कुछ ऐसी बैल के सींगों जैसी टूटन है कि वह कुल्हाड नहीं कही जा सकती।
उस पर लिखा अंकन हमारे बाएं से दाहिने पढ़ने पर दर्शाता है कि - "चतुराधक सल्लेखी वीतरागी तपस्वी एक रत्नत्रयीगणी है जिसने तीर्थंकर प्रकृति उपार्जन की।" प्रथम संकेताक्षर -4 दिखता है। दूसरा है । पुरा कालीन सीलें अत्यंत दक्ष कला दर्शाती हैं संकेताक्षर भी और चित्रण भी। जबकि यह तथाकथित हथकुल्हाड़ का अंकन सैंधव कलाकार के व्दारा किया प्रतीत न होकर अर्वाचीन दिखता है। अतः मेरे मत से प्रथम तो यह हथकुल्हाड़ नहीं कूटक संभव है जो ईख के छिले पोरों को कुचलकर उन्हें छन्ने में रखकर ऐंठकर आहार रस निकालने हेतु उपयोग किया जाता ह्येगा अथवा इमली के बीज हटाने में। किंतु इसे कभी उपयोग किया गया हो ऐसा नहीं दिखता। दूसरे, इस पर अंकित संदेश दर्शाता है कि यह एक पवित्र पत्थर है जिस पर किसी तपस्वी श्रमण का परिचय लिखा है अतः इसे बहुत सम्मान से रखा जाता रहा होगा। तीसरे, संभवतः किसी जैन गुफा अथवा उपाश्रय के व्दार पर इसे टेक लगाने हेतु उपयोग किया जाता रहा हो। वहां इसका सही स्थान रहा होगा। चौथे, इसे कितनी गहराई पर पाया गया वह संकेत देगा कि वहां यह कैसे पहुंचा और किस काल का है। यदि यह पाषाण युगीन है तो वह पुरा अंकन जहां जहां दिखता है वे सब उसके ही समकालीन हुए माने जाने चाहिए ।
कर्नाटक, तमिल नाडु, केरल और श्री लंका में पुरा कालीन जैन गुफाऐं अब भी हैं । मात्र हमारे पुरातत्त्वज्ञ उन्हें पहचानने में चूक करते हैं। कार्ला, जोगेश्वरी, बाबा प्यारा गुफा, खापरा कोडिया की धारागढ़ गुफाओं की तरह अनेक गुफां, मंदिरों,
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