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चामुण्डराय के काल तक भी शिथिलाचारी जैनाभासी परम्परा दक्षिण भारत में प्रचार नहीं पा सकी थी भले ही सम्प्रति के काल से लेकर तब तक कुछेक शासकों और श्रेष्ठियों से संरक्षण पाकर उसने उत्तरी भारत में कई मूल क्षेत्रों; जूनागढ़, गिरनार, पालीताना आदि मे अपनी पकड़ बना चली थी। आचार्य भद्रबाहु प्रथम के मूल संघ के विघटन के बाद दोनों ही परम्पराओं के आचार्य अपनी अपनी परम्परा की प्रभावना में जुटे हुए थे । मूल परम्परा के क्षेत्रों की सुरक्षा के लिये भद्रपुर से भट्टारक परम्परा प्रचलित होकर उज्जयिनी, चन्देरी, भेलसा/वर्तमान विदिशा, भोपाल, कुण्डलपुर/दमोह, वारां, ग्वालियर, अजमेर, दिल्ली, चित्तौड़, नागौर, ईडर और सूरत आदि गद्दियां प्रस्थित हुईं। पुरा कालीन परम्परा की सतघोषणा हेतु कदाचित आदिनाथ की बैठी मुद्रा न बनवाकर आचार्य ने उस लंबे काल से चले आ रहे विवाद को अंत कराने के विचार से तपलीन बाहुबलि मुद्रा को ही वहाँ उन्नत चोटी पर प्रगट कराना चाहा हो। संयोग था कि उसमें वीर जननी का भी भावनात्मक सहयोग जुड़ गया ।
जैन इतिहास में मात्र बाहुबलि ही एक ऐसे तपस्वी दिखते हैं जो एकबार तपरत हुए तो फिर कभी बैठे नहीं। उनकी तपलीन मुद्रा का दर्शन मात्र खड़गासन में ही संभव था जो चिरकाल के लिए सैंधव युगीन शाश्वत परम्परा को दिग दिगन्त तक भारतीय मूल संस्कृति की सुगंधि सा- अहिंसा, सत्य, करुणा, शील, त्याग और तप की गूंज के रूप में देने में समर्थ था। वह अटल बिंब समूची पर्वत शिला होने से न तो हिलाया जा सकता था ना ही हटाया जा सकता था। उसका वहाँ प्रगट होना मात्र कारीगर की अनुपम कला का प्रदर्शन ही नहीं, भारतीय मूल संस्कृति की अभिव्यक्ति मात्र भी नहीं आदिकालीन चले आ रहे आत्म पथ के रहस्य को उदघटित करने वाली चिर घोषणा के रूप में था। वह एक बहुत बड़ी घटना थी जिसे चामुण्डराय जैसा शूर योध्दा ही संपादित करा सकता था अन्यथा उस समय तक तो जिनश्रमण जैसी सहनशील संस्कृति ने विकटतम आरोपित संकट झेले थे, एलोरा के गुफा चित्र जिसका आंशिक उदघाटन करते हैं। संधवांकित पुरा जिन बिंब तो अकाटय कुंजियाँ हैं। . सैंधव कुंजी 1 :
सैंधव लिपि की उस विशाल धरोहर के कारण गोम्मटेश का वह विन्ध्यगिरि एक जैन शाश्वत तीर्थ होने का परिचय देता है कि वह एक शाश्वत तीर्थ निरंतर रहा इसीलिए कटवप्र (सल्लेखना पर्वत) कहलाया। भरत बाहुबलि के उन मंदिरों से भी पूर्व
1 में अंकित वह क्षत कायोत्सर्गी जिन रेखांकन सैंधव युगीन अत्यंत ठोस प्रमाण कुंजी के रूप में है क्योंकि उसके समीप ही उसी से संदर्भित चार स्पष्ट और एक धूमिल सैंधव संकेताक्षर भी उससे साम्य रखते हुए अंकित हैं (चित्र) भाला, पिच्छी, त्रिशूल सात खड़ी लकीरें और एक धूमिल खड़ी मछली, जो बाएं से दाएं पढ़े जाने पर दर्शाते हैं कि :
'स्वसंयम की साधना करने वाला ही महाव्रत की पिच्छी लेकर रत्नत्रय को धारण करता और सप्त तत्त्वों का चिंतन करता तपस्वी है। वही अरहंतजिन का भक्त है।'
श्री महादेवन जैसे पुराविद भी इस महत्वपूर्ण अंकन को देखकर मौन रहे (चित्र) जबकि उनकी लेखनी ने तमिल नाडु में खुदाई से प्राप्त एक कूटक पर (चित्र) लिखे चार संकेताक्षरों को शताब्दी की उपलब्धि लिखा था। वही नहीं केन्द्रीय भारतीय पुरातत्त्व विभाग को भी लिखित सूचना देने पर भी कोई प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं हो सकी। भारतीय इतिहास कान्फ्रेंस में इसपर विस्तृत जानकारी प्रस्तुत किए जाने पर भी आश्चर्य है कि पुराविदों की दृष्टि इस सैंधव कुंजी की ओर नहीं आई। इसके ज्ञापन हेतु एक शोधग्रंथ "द सीड इंडस रॉक ऑफ कर्नाटका" के रूप में उसे कतिपय विश्वविख्यात पुरातत्त्वज्ञों के पास भी भेजा किंतु उनसे भी कोई टिप्पणि न पाकर यह स्पष्ट हुआ कि पुराविदों को वास्तव में कुंजी न मिलने का मात्र एक बहाना था। वे सब उसे अपने अपने तरीकों से ही पढ़ना चाहते थे ।
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