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________________ सैंधव लिपि की दृष्ट पुरा कुंजियाँ सिंधु घाटी लिपि को पुराविदों ने संकेतों, चित्रों की बनावट के आधार पर उनके प्रत्यय उपसर्ग वाले संदर्भो सहित पहचान पहचान कर उन्हें केटेलॉगों में सुरक्षित तो कर लिया किंतु वे उसके पाठन हेतु एक भी कुंजी ना ढूँढ सके। जिस पुरा संपदा को उन्होने उसके नैसर्गिक भंडारों से खोज निकाला था उसकी वे कुंजी भी तो पा सकते थे। वे एक एक संकेता क्षर पहचानते थे, गुहा मंदिरों और शलांकित कला चित्रों को भी खोज चुके थे। सिर उठाकर ऊपर दृष्टि तो डाली किंतु पैरों तले क्या रौंद गए इस पर ध्यान नहीं दिया। मात्र जे, एम, केनोअर ने पाकिस्तान के कुछ शैलांकनों को सैंधव घोषित किया और उन्हें लगभग 1500 ई.पू प्राचीन बतलाया। उनमें से एक चतुर्दिक त्रिआवर्ति का ठिा ऐसा संकेत है जो न केवल श्रवण बेलगोला की दोनों पहाड़ियों पर बल्कि तमिलनाडु के कुछ जैन मंदिरों के फर्श और पहाड़ियों पर भी अंकित दिखा है और यह दर्शाता है कि या तो वह मंदिर ही सैंधव युगीन है या कि फिर वह सैंधव युगीन मन्दिर के अवशेषों से निर्मित है जैसे कि चित्तौड़ का मीरा मंदिर तथा श्रमण बेलगोला का गोम्मटेश मंदिर जो पुराकालीन जिनायतनों की सामग्री से ही निर्मित प्रतीत होते हैं । (श्रवण बेलगोला का वास्तविक नाम श्रमण बेलगोला ही होना चाहिए श्रवण नहीं क्योंकि वहाँ उनसे ही संबंधित अपार लेख अंकित हैं।) श्रमण बेलगोला की बड़ी पहाड़ी पर जो कि एक विशाल शिला है, दिगम्बरत्व १०. स्वस्तिक की पांच गतियाँ . गुणस्थानोन्नति .. चतुर्गति . चतुर्दिक त्रिआवर्ति, के अलावा श्रावकों और साधुओं संबंधी विस्तृत जानकारी वहाँ की पाषाणी धरा पर अंकित कालीन सी बिछी है। वैय्यावृत्ति H. वातावरण U. पुरुषार्थ ). सल्लेखना ). पंचम गति ।. तीन छत्र सुंदर जिनालयों की रचना संबंधी अंकन, वूम्ब स्केच/भूवलय ग्रंथ संबंधी अंकन, तपस्वी मुद्राएं, राजाओं का वैभव सहित हाथी पर आगमन, जिन सिंहासन और कायोत्सर्गी मुद्रा का हाथी पर दर्शन, उछलता घोड़ा., भद्रबाहु चंद्रगुप्त से भी पूर्वकाल में बना सुदृढ़ चार घेरों के अंदर स्थित पर्वत का शीर्ष जिनालय, प्राचीन पहुंच मार्ग दिखलाता यक्ष, अनेक सिरों वाले पशु के रूप में क्षेत्र पर निगरानी रखता यक्ष आदि तो हैं ही, सैंधव आदितम कुंजी के रूप में आदि शिला के ऊपर जहाँ बाहुबलि मंदिर उसमें ही जड़ा गया है, पुरा कालीन (चित्र) कायोत्सर्गी जिन अंकन दिखता है जिसका आधा भाग अज्ञानवश उस मंदिर के निर्माण के समय नष्ट हो गया। चूंकि उस पुराकालीन मंदिर का अस्तित्व उन चार घेरों वाले शैलांकन से स्पष्ट हो जाता है जिसके अंदर अंकित संकेत - जिनध्वजा, त्रिछत्र, डुलते चंवर बतला देते हैं कि 'ऊपर त्रिलोकीनाथ का सुंदर जिनालय था जो कदाचित नैसर्गिक आपदा ज्वालामुखी अथवा भूकंप से ध्वस्त हो गया"। उसका पाषाण, सैंधव लिपि अंकित शिलाऐं और श्रमण शायिकाएं वर्तमान खड़े चामुण्डराय वाले मंदिर में यव्दा तव्दा लगी दिखाई देती हैं। आदि शिला में टंकित बाहुबलि मंदिर, बीच वाला वह दरवाजा तथा साथ वाला भरत जिनालय एक ही विशाल शिला के अंश हैं जो उस पुरा कालीन मूल जिनालय का एक घेरा बनाते थे। दरवाजे के दोनों ओर उन दोनों भाईयों के जिनालय इस बात के द्योतक हैं कि ऊपर चोटी पर आदिनाथ जिनालय ही रहा होगा जहाँ पर्वत को काटकर बाद में गोम्मटेश को रूप दिया गया है। अब भी उस पावन परिकर के बाहरी घेरे की शिलाओं पर घनी पुरालिपि अंकितशिला को काटकर वह बाहरी प्रदक्षिणा बनी है जहाँ पूर्वकालीन, दूसरे कला चरण काल का एक छोटा सा जिनालय अब भी अंकित है। उसमें ऊपर के खण्ड में अरहंत देव और नीचे के खण्ड में आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठी दृष्ट हैं (चित्र) । उस ध्वस्त जिनालय में लंबे काल अंतराल के बाद संभवतः अचानक गुरु नेमिचंद्राचार्य को वीतरागी छवि दर्शन के भाव हुए हों और समर्पित शिष्य चामुण्डराय ने उसे पूर्णता दी जैसा कि इतिहास बतलाता है। :: 179 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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