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________________ -संगह णिग्गह कुसलो सुत्त्थ विसारओ पहिय कित्ती। सारण वारण साहण किरियुज्जुत्ता हु आयरिओ। धवला, 111-1/31ER: -दसविहठिदिकप्पे वा हवेज्ज जो मुट्ठिदो सयायरिओ। आयारवं खु एसो पवयणमादासु आउत्तो |भगवती आराधना मूल,420 made -पंचस्वाचारेषु ये वर्तन्ते परांश्च वर्तयन्ति ते आचार्याः । भगवती आराधना वि0 46/154/12 -दंसणणाणचरित्ते तव्वे विरियाचरम्हि पंचविहे। वोच्छं अदिचारे हं कारिदं अणुमोदिदे अ कदो। मूलाचार,199 + अपने व्रतों को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए वे आत्मसंयमी श्रावक तथा साधुगण व्दादश अनुप्रेक्षा तथा वैराग्य भावना भाते और उनपर पुनः पुनः चिंतन करते थे। इस प्रकार अपनी जागृति बनाए रखते थे । वह पद्यति आज भी चालू है। -स्वाख्यातत्त्वानुचिन्तन, मनुप्रेक्षा । तत्त्वार्थ सूत्र 9/ 7 m -अधिगतार्थस्य मन साध्यासो अनुप्रेक्षा । सर्वार्थ सिध्द, 9/25/443 m -शरीरादीनां स्वभावानुचिंतन मनुप्रेक्षा। सर्वार्थ सिध्द 9/2/409 -कम्मणिज्जरणट्ठमट्ठि मज्जाणुगयस्स मुदणाणस्स परिमलणमणु पेक्खणा णाम। घवला, 9/4,1,55/263/1am साधु संघ विहार करके तीर्थ भ्रमण करते और एकान्त शिखरों पर तप करने जा ठहरते। श्रावक भी वहीं उनकी वैय्यावृत्ति करते ध्यान करते, जाप देते 8पुरुषार्थ बढ़ाते और सल्लेखना कराते/करते अपना इहभव सार्थक करते थे जैसा अब भी होता है MANAM RAM MMME -तज्जगत्प्रसिध्दं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थ उर्जयन्त शत्रुजय लाटदेश पावागिरि ....तीर्थकर पंचकल्याणस्थानानि चेत्यादि मार्गे यानि तीर्थानि वर्तन्ते तानि कर्मक्षयकारणानि वन्दनीयानि | बोध पाहुड़ टीका, 27/93/7 तप की चरम स्थिति सल्लेखना या सतलेखना है जिसके बिना सारे जीवन के तप और संयम निर्थक रह जाते हैं। सच ही कहा है कि अंत भला सो सब भला। किंतु वह सल्लेखना एक संयमी के व्दारा जितनी सहज देखने में आती है वही. एक असंयमी की कल्पना में अत्यंत दूभर हो जाती है इसलिए भ्रमवश उससे संबंधित तरह तरह की शंकाएं बताई जाती हैं। जब -वृध्दावस्था से शरीर अत्यंत दुर्बल होकर अपने षटआवश्यक ना कर सकने की स्थिति में पहुंच जावे अथवा -रोग की भीषणता जीवन का असंयममय अंत दिखलाती होवे अथवा -जीवन का अंत लाने वाला कोई गंभीर उपसर्ग अथवा दुर्घटना घट गई हो अथवा -संकल्पित धर्म के धारण में बाधा करने वाली अटल विपत्ति आ गई हो तब.......! -तपस्वी अपने संयम और संकल्पों की सुरक्षा के लिए सल्लेखना स्वयं सोत्साह धारता है जिसमें वह अपनी कषाय तथा नोकषाय दोनों को कमशः आहार जल सीमित करते हुए क्षीण करता है। सैंधव संकेत वही दर्शाते हैं। ।। ..) जहाँ छोटी लकीर नोकषाय और बड़ी लकीर कषाय दर्शाने वाले प्रतीत होते हैं। इसे संथारा भी कहते हैं । तपस्वी की सल्लेखना मुद्राएँ कितना मेल रखती हैं यह विशेष ध्यान देने का विषय है। पीछे की लकीरें अदृष्ट भाव अभिव्यक्ति ही होना चाहिए। 178 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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