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________________ जैन दर्शन उस आत्म तत्व को ही धुरी मानकर संसार को देखता है क्योंकि शाश्वत षटद्रव्यों में मात्र एक वही जीव द्रव्य मेरा 'स्व' है। शेष सब 'पर' हैं इसका उसे भान रहता है । यह शरीर उसके ही सहारे स्वयं को 'मैं' पुकारता अहं भाव रखता है। सैंधव संस्कृति भी अपनी लिपि से यही साम्य दर्शा रही है। · अक्षणोति व्याप्नोति जानातित्यक्ष आत्मा । सर्वार्थ सिध्दि, 1/12/103 d -मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि ज्ञानं त. सू. 8 9, मतिश्रुतावध्यो विपर्ययश्च । तत्त्वार्थ सूत्र, 31 - चैतन्य शक्तेव्द विकारी, ज्ञानाकारो ज्ञेयकारश्व राजवार्तिक, 1/6/5/34/28 ० | -इत्यादि भेदात पंचधा, इत्येवं संख्येयासख्येयानंत विकल्पं च भवति ज्ञेयाकार परिणति भेदात राजवार्तिक, 1/7/14/41/2 – स्वप्रभाव भासणसमर्थ सविकल्पं गृहीत ग्राहकं सम्यग्ज्ञानमेव ज्ञानमर्थे निवर्तमत्प्रमाण मित्यार्हतं मतं । न्याय दीपिका, 1/28/22 X * जिनशासन / सिंहासन के चार पैर साधु आर्यिका श्रावक श्राविका कहे गए हैं बढकर क्रमश: Imf सात हो जाते हैं। वे सभी गुणस्थानोन्नतिरत रहते हैं। ये सभी सम्यकदर्शन के आठ अंग पालते हैं जिनमें एक धर्मवात्सल्य है जो विनय और वैयाव्रत्य दोनों को पैदा करता है। दोनों सोलहकारण भावनाओं में भी समाहित हैं और तीर्थकर प्रकृति उपार्जन में भी कारण हैं । HO वैयाव्रत्य व्दारा गुणीजनों की सेवा की जाती है। सैंधव लिपि संकेतों में ये सभी दृष्ट हैं। 茓 -व्यापृते यत्क्रियते तव्वैय्यावृत्त्यं । धवला. 8/341/88/ - व्यापत्ति व्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात वैय्यावृत्यं व्यापानुपग्रहौ अन्यपि संयमिनां रत्नकरण्ड श्रावकाचार 112 -कायचेष्टा द्रव्यान्तरेण चोपासनं वैव्यावृत्यम । सर्वार्थ सिध्दि, 9/20/439/7 86 --गुणधीए उवज्झाए तवस्ति सिस्से य दुब्बले साहुगणे कुले संघे समणुण्णे य चापदि । मूलाचार 390 *4* Jain Education International जैनागमानुसार आत्मोन्नति का यह पथ आदि काल से गुरु शिष्य परंपरागत चला आ रहा है जहाँ चतुर्दिक संघ में रहकर पुरुषार्थवान मनुष्य संघाचार्य एवं तपो वृध्द तपस्वियों की चर्या देखकर अनुकरण करते हुए उनसे ज्ञानमय उपदेशित मोक्षपथ को यहाँ तक सुरक्षित ले आए हैं। सैंधव संकेत उसे भी दर्शाते हैं पंचेन्द्रिय के विषय कितने ही लुभावने क्यों न हों उनका रत्नत्रय दृढ़ बना रहता है। ४ जो पैरों की गणना कर लेने पर - चरदि णिबध्दो णिच्च समणो णाणम्मि दंसणमुहन्मि । पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो प्रवचनसार मूल,214 TAT 咽 - स्वद्रव्यं श्रध्दानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः। तत्त्वार्थसार 9/6 -अणतणाणदंसणवीरिय बिरइखइयसम्मत्तादीण साहया साहू णाम । धवला, 8/3,41 /87/4 —आयारं पंचविहं चरदि चरावेदि जो णिरदिचारं, उवदिसदि य आयारं एसो आयारवं णाम | भगवती आराधना 419 ॐ ॐ -संगह णिग्गह कुसलो सुत्त्थ विसारओ पहिय कित्ती । सारण वारण साहण किरियुज्जुत्ता हु आयरिओ । धवला, 111-1 / 31 177 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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