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गृहस्थ को जीवन यापन करते हुए आरंभी हिंसा का दोष तो लगता ही है विषय कषाय जनित कर्मास्रव भी सदैव बना रहता है। इसलिए घर में रहकर मुक्ति असंभव है। गृहस्थ घर में रहकर संयम की भूमिका अवश्य बना सकता है।
-खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभ प्रमार्जनी पंचसूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति । मोक्ष पाहुड़,12/31 -असि मसि कृषि वाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंस्यसंभवेपि पक्षः । चारित्रसार, 40/4 U V UU -कार्यास्त्रेधा सावद्यकर्मार्या अल्प सावद्यकर्मार्या असावद्यकार्याश्चेति। सावद्यकार्याः षोढ़ा असि मसि कृषि विद्या शिल्प वणि क्कर्म भेदात । राजवार्तिक, 3/36/2/200/32 IND
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-षडप्येतेअविरति प्रवणत्वातसावद्यः कार्याः अल्प सावद्यकार्याः श्रावकःश्राविकाश्च विरत्यविरति परिणत्वात । राजवार्तिक, 201/6 -उहयगुणवसन भय मल वैराग्गैचार भत्तिविग्गहं वा। एदे सत्तरिया दंसण सावय गुण भणिया। रयणसार, -एयारस दस भेयं धम्म सम्मत्तं पुव्वयं भणियं ।सागार अनगाराणं उत्त्म सुह संपजुत्तेहिं ।बारस अनुवेक्खा, 68 x -आज्ञापायविपाक संस्थान विचयम धर्म्य । तत्त्वार्थ सूत्र, 9/36 || -अद्योतम क्षमा यत्र सो धर्मो दश भेद भाक। श्रावकैरपि सेव्यौसो यथाशक्ति यथागमं । पदमनंदि पंचविंशति,6/59 -धम्मे एग्गामणो जो णवि भेदेदि पंचहः विसयं | वेराग्गमओ णाणी धम्मज्झाणुम हवे तस्स । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 479 ध्यान की आरंभिक अवस्था जघन्य सामायिक है और ध्यान बारह तपों में से एक तप है। न -राग दोसो णिरोहित्ता समदा सव्व कम्मसु । सुत्त्सु अपरिणामो सामाइयं उत्तम जाने । मूलाचार, 523 -सामायिकं सर्व जीवेषु समत्वं । भाव पाहुड़, टीका, 27/221/13 0 -चतुरावर्त्तत्रितयश्चतुःप्रणामस्थितो यथाजातः ।सामायिको व्दिनिषद्यास्त्रियोगा शुध्दस्त्रिसंध्यंभिवंदी रत्नकरण्डश्रावकाचार,139 -जीवित मरणे योगे वियोगे विप्रिए प्रिए शत्रौ मित्रे सुखे दुक्खे समयं सामायिक विदुः । अमितगति श्रावकाचार 8/310 -धर्मध्यानं बाहयध्यात्मिक भेदेन व्दिप्रकारं ।चारित्रसार,, 172/3 0 0 0
-मूलोत्तर गुणनिष्ठमधितिष्ठन पंचगुरुपद शरण्यः । दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधं श्रावकः पिपासु स्यात |सागार धर्मामृत./15" -कम्मजिज्जरा नष्ठमस्थि मज्जनुगयस्य सुदणाणस्स परिमल मणुपेक्खणा णाम । धवला, 9/4,1,55/263/1D1 -पंचमहाव्रत धरास्त्रिगुप्ति गुप्ताः अष्टादश शील सहस्त्रधराश्चतुरशीति शत सहस्त्र गुण ध्राश्च साधवः । धवला,1/1,1,1/51/2 -उज्जोवणं मुज्जवणं णिव्वाहणं साहणं च पिच्छरणं । दसण णाण चरित्तं तवाण माराहणा भणिया । भगवती आराधना,2my -गोप्तं रत्नत्रयात्मानं स्वात्मनं प्रतिपक्षतः, वापथोगान्ति गृहीयाल्लोक पंक्त्यादि निस्पृहः । अनगाार धर्मामृत, 4/15
-चारित्त मोह उवसामगा मदा देवेसु उववज्जति । धवला,2/1,1/430
अदृष्ट आत्मा संसारी की समझ में न आने से आत्ममय होकर भी वह उसे नकार कर मात्र शरीर को ही 'स्व' पुकारता है और वह कुछ अंशों में सही भी है । आत्म प्रदेश संपूर्ण शरीर में व्याप्त होने से ही संपूर्ण शरीर संवेदना अनुभवन करता है, 'मैं' पने की स्मृति भी रहती है जो मरण के उपरान्त शव में नही रहती। यही आत्मा का अस्तित्व दर्शाता है कि वही 'मैं' है ।
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