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- द्रव्यलिंगमिदं ज्ञेयं भावस्य लिंग कारणं । तदध्यात्मकृतम स्पष्टं ना नेत्र विषयं यतः । भाव पाहुड, 2 / 129
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- णिव्वाण साधए जोगेसदा जुंजुंति साधवो। सदा सव्वेसु भूदेसु तम्हा ते सव्व साधवो । मूलाचार, 512
- जिनेन्द्र मुद्रया गाथाम ध्यायेत प्रीतिकस्वरे हरितपंकजे प्रवेश्यांतर्निरुध्य मनसानिलम प्रथम व्दिद, येक गाथांश चिन्तान्ते
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रेचयेच्छनैः नवकृत्वा पृथोक्तैवं दहत्यन्हः सुधीरमतः । अनगार धर्मामृत, 9/22-23/866
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जिनभक्त पंचपरमेष्ठियों को आराधते एकदेशव्रती और फिर महाव्रती बनकर चतुराधन से कर्मजालों से छुटकारा पाने उद्यम करते हैं। वे घर में रहते हुए जीविकोपार्जन सहित धर्म सेवन और साधुओं की सेवा करते हैं। [H]
- मूलोत्तर गुणनिष्ठमधि तिष्ठन पंचगुरुपद शरण्यः, दान यजन प्रधानो ज्ञान सुधं श्रावकः पिपासु स्यात। सागर धर्मामृत, 1 / 15 - अणुव्रतो आगारी । तत्त्वार्थ सूत्र, H 사
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वह सम्यकदृष्टि आगारी जिनवाणी श्रध्दानी तथा षट द्रव्य, सप्त तत्व चिंतक है।
- जीवा पोग्गल काया धम्म अधम्मा य काल आयासं । तच्चत्त्था इदि भणिदा णाण गुण पज्जयेहिं संजुत्ता | नियमसार, 9
- दव्वं जीवजीवं जीवो पुणचेदणोवओगमओ पोग्ग्ल दव्वप्यमुहं अचेदणं हवदि य अज्जीवं प्रवचनसार, 127
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- क्रिया च कालस्य । तत्त्वार्थ सूत्र, 5 / 22
- स च कालो व्दिविधः उत्सर्पिणी अवसर्पिणी चेति तिल्लाय पण्णत्ति 4 / 313 " m
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- तत्रावसर्पिणी षटविधा सुषमसुषमा, सुषमा, दुष्वमसुषमा, सुषमदुष्यमा अति दुष्यमाचेति । धवला, 9/4,144/119/10
- परत्तौ जीवदौ मिच्छादिट्ठी हवइ । बंधइ बहुविधकम्मणि जेण संसारे भमति । परमात्म प्रकाश, 1/77
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मिध्यादृष्टि जीव संसार प्रवृत्त रह लौकिक वैभव की ओर दौड़ते जीवन व्यर्थ गवांकर मेरा तेरा करता रहता है। कर्माराव करता वह आत्मा के अस्तित्व को नहीं जानता। ना ही जानना चाहता है । वह चंचल चित्त आकुल व्याकुल रहता है।
नवपदार्थेषु
- निज परमात्मप्रभृति षड, द्रव्य : पंचास्तिकाय सप्ततत्व सर्वज्ञ प्रणीत नय विभागेन यस्य श्रध्दानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिर्भवति । द्रव्य संग्रह टीका, 13/32/10 - अन्नाणि पुनरत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो लिप्यदिकम्मरयेण दुकंद मज्झे जह लोई । समयसार 129 - सममैत्थी कालं बीले वेरग्गणाण भावेण मिट्टी वांछा दुब्भावालस्सकल्हेहि रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 57 T
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प्रत्येक श्रावक भावना भाता है कि वह व्रत धारण करके अपनी भव भटकान कम कर ले। यह जीवन व्यर्थ न चला जाए।
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मूत्र्यादि पंचविंशति मल रहितं वीतराग
-तपसा निर्जरा च । तत्त्वार्थ सूत्र, 9 / 3
-अप्पा अप्पाम्मि राओ रायादिसु सहल दोस परिचित्तो संसार तरण हेदू धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठो । भाव पाहुड़, 8591 - सिंगो णिरारंभो भिक्खचरिएइ सुध्दभावो य एगागि ज्झाणरदो सव्वगुड्डो हवे समणो -जीवितान्ते तु साधनं । देहादेर्हित त्यागात ध्यान शुद्धात्म शोधनं । महापुराण, 39/149
मूलाचार, 1000 1 হ9 al की नती
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